Saturday, November 13, 2010

हमारे दिलों में महकने वाला गुलाब;चाचा नेहरू



पण्डितजी,जवाहरलाल,नेहरूजी के बाद सबसे आत्मीय संबोधन है चाचा नेहरू जो हमारे देश की फ़िज़ाओं में गूँजता है और ख़ास बच्चों की बिरादरी का मन मोह लेता है. आज मैं ख़ुद एक माँ हूँ लेकिन चाचा नेहरू को याद कर फ़िर बच्ची बन जाना चाहती हूँ. बाल दिवस की पूर्व संध्या पर मेरी कविता के ये शब्द मुझे अपने बचपन के गलियारों की सैर करवाते हैं.मुलाहिज़ा फ़रमाएं.....

कैसी है इक जीवन गाथा
जिसका कोई अंत न आता

"मोती -स्वरूप" पितु अरु माता
"आनंद " में ही बचपन बीता

शादी की कमला रानी से
तन -मन ,जन और जेलों में

एक दृढ़ विचारक ,एक स्वप्न दृष्टा
एक ही लक्ष्य प्रधान ,नवयुग के सृष्टा

पंचशील से नाम उजारा
शांतिदूत सा नाम तुम्हारा

वित्त क्रांति का अलख जगाया
विश्व शांति का परचम फ़हराया

जन- जन के तुम प्रेरक दूत
भारत माँ के सच्चे सपूत

पुष्प गुलाब तुम्हें अर्पण
जन्मतिथि पर तुम्हें नमन

Wednesday, August 25, 2010

अपने बालक को बालक ही रहने दीजिए !




यदि आप एक पालक हैं तो आपके मन में अपने बालक के लिये कई उम्मीदें होंगी कि वह एक डॉक्टर, एक अभियंता, वैज्ञानिक या कोई यशस्वी व्यवसायी बने। मेरा मानना है कि आपकी ये उम्मीदें आपके बालक के भविष्य और आपके जीवन में उसके स्थान को ध्यान में रखते हुए ही होंगी।

चूँकि एक अच्छी शिक्षा अक्सर अच्छे भविष्य का पासपोर्ट होती है, मेरी मान्यता है कि इसी कारण यह उद्देश्य आपको आपके बालक को एक अच्छे विद्यालय में प्रवेश हेतु प्रेरित करता है, तत्पश्चात्‌ आप बालक को अच्छी पढ़ाई कर परीक्षा में अच्छी सफलता पाने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। इसी उद्देश्य को अधिक सुनिश्चित करने के लिये आप उसे किसी ट्‌यूशन क्लास में भी भेजते हैं। फलस्वरूप वह बालक बोर्ड की परीक्षाएँ और अन्य प्रवेश परीक्षाएँ देने हेतु विवश होता है ताकि उसे किसी अच्छे व्यवसायिक अभ्यासक्रम में प्रवेश मिल सके। महाविद्यालय में अच्छा यश पाने से उसे एक अच्छी नौकरी पाने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैंऔर एक अच्छी नौकरी का अर्थ बालक का भविष्य सुनिश्चित हो जाना होता है।

मैं स्वयं न एक मनोवैज्ञानिक हूँ; ना ही एक शिक्षाविद्‌, और अब मैं जो कहूँगा वह उपरोक्त विचारों के एकदम विरूद्ध लग सकता है। मेरे विचार में यही अपेक्षाएँ और तद्‌नुसार की गई क्रियाएँ आपके बालक को अच्छाई कम और नुकसान अधिक पहुँचा सकती हैं ! ऐसा क्यों ? यह समझने के लिये हमें अपनी मूलभूत मान्यताओं को पुन: देखना होगा।

सर्वप्रथम, मैंने बार-बार यह देखा है कि किसी दूरस्थ भविष्यकालीन उद्देश्य के लिये प्रयास करते जाने का अर्थ है आप वर्तमान में नहीं जी रहे हैं। उस दूरस्थ उद्देश्य का परिणाम होगा, यश पाने के लिये परीक्षा जैसे बाह्य साधनों का आधार लेना और अधिकांश बच्चों का परीक्षा-केन्द्रित होना। उनका बच्चे होना-जैसे उत्सुक, मसखरा, शोधक, गिरना, उठना, संबंध रखना, खोज करना, संशोधन करना, काम करना, खेलना आदि वे भूलते ही जाते हैं।

बाल्यकाल एक बड़ी मौल्यवान बात होती है; ऐसी मौल्यवान, जो ज़बरदस्ती लादी गई स्पर्धाओं के नकली बोझ, किताबी अध्ययन के अनगिनत घंटों और समूचे इंसान को मात्र आँकड़ों में ही सहजता से लपेटने वाली स्कूली रिपोर्टों के द्वारा नष्ट नहीं की जानी चाहिए।

दूसरी मान्यता यह है कि सामाजिक-आर्थिक उति के लिये शिक्षा मात्र एक टिकट जैसी है, अपने राष्ट्र की वर्तमान अवस्था देखने पर यह सत्य भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। किंतु शिक्षा को केवल इसी पहलू तक सीमित रखना, मेरे विचार से शिक्षा को एक बहुत सीमित उद्देश्य के दायरे में रखना होगा। किसी विद्यालय का प्राथमिक उद्देश्य बालक को स्वयं की और अपने विश्व की खोज करने हेतु मार्गदर्शन करना और बालक की क्षमताओं को पहचान कर उनको आकार देना होता है। जैसे की एक बीज में एक भविष्य का वृक्ष छिपा होता है उसी प्रकार एक बालक अनगिनत क्षमताओं के साथ ही जन्म लेता है। ऐसे एक विद्यालय की कल्पना कीजिए जो बच्चों को बोने हेतु बीजों के रूप में देखता है-यहॉं एक शिक्षक ऐसा माली होता है जो बालकों की जन्मजात क्षमताओं को उभारने में मदद करता है। यह विचार उस वर्तमान दृष्टिकोण से, जिसमें यह माना जाता है कि एक बालक मात्र एक मिट्टी का गोला होता है जिसे अपनी इच्छानुसार ढालने वाले उसके माता-पिता और शिक्षक एक मूर्तिकार होते हैं, एकदम विपरीत है। एक पुरानी (अब स्मृति शेष भी न रही) चीनी कहावत है, एक कुम्हार को एक बीज दीजिये, और आप पाएँगे एक बोनसाई (गमले में उगा बौना वृक्ष)। एक व्यापारी संस्थान में भी लाभ पाने के लिये उसका पीछा करने से काम नहीं हो पाता। हमें एक ऐसी संस्था बनानी होती है जिसमें हर कर्मचारी को अर्थपूर्ण तथा संतोषप्रद काम करने के अवसर देना होते हैं। एक ऐसे संगठन का निर्माण हो जिसमें नवीनता, नेकी, ग्राहक-केन्द्रिता हो तथा आस्था ही उसकी चालना हो। जैसे ही आप हर पल, हर दिन इन मूल्यों का पालन करेंगे आप यह पाएँगे कि लाभ अपनी चिंता स्वयं ही कर लेता है।

ठीक उसी तरह प्रिय पालकगण, मेरी आपसे भी एक विनती है, अपने बालक का भविष्य सुरक्षित करने के लिये उसके बचपन को न गॅंवाइए। अपने बालक को निश्चिंतता से उसका जीवन टटोलने और ढूँढने की स्वतंत्रता दीजिए। ऐसा करने पर आप अपने बालक को एक सृजनशील एवं संवेदनशील इंसान के रूप में फलता-फूलता देख पाएँगे और जब ऐसा होगा तब अन्य सब कुछ यानी समृद्धि, सामाजिक सफलता, सुरक्षा अपनी जगह अपने-आप पा लेंगे।

अपने बालक को बालक ही रहने दीजिए !

मूल लेख : श्री अज़ीम एच. प्रेमजी (विप्रो के चेयरमेन ) का है और मेरे ब्लॉग के लिये इसका हिन्दी रूपांतर भाई संजय पटेल ने किया है.

Saturday, April 17, 2010

पिता और मेरे सपने












सारी दुनिया ,लेखक कवि वृन्द
सब गाते है माँ की महिमा
मै भी नतमस्तक हूँ
देवी प्रतिमा के आगे
कहीं चुभता मन में एक शूल
पिता की अनदेखी कर
हो न मुझसे कोई भूल
पिता जो मेरे घर की धुरी
माँ के हाथों की चूड़ी हैं
रोज़ शाम उनकी राह तकती हूँ
आकर मुझे सुलाते है
पर उनकी आँखों में नींद कहाँ
मेरे सपने पूरे करने की उधेड़बुन में
सारी रात
टाइप राईटर से आँखे चार करते हैं.

Thursday, April 1, 2010

क्या आपने ग़ुस्से,बैर,और जलन का भी इयर एण्डिंग कर दिया ?

मार्च आते ही सरकारी, प्रशासनिक, व्यापारिक यंहा तक की आम दफ्तरों एवं छोटी-मोटी दुकानों में साल भर के लेखे -जोखे देखने की सुगबुगाहट शुरू हो जाती है.सभी व्यस्त रहते है अपनी वित्तीय स्थिति का अवलोकन करने में ,नफ़ा -नुकसान जांचने में,लेनदारी -देनदारी निपटाने की उधेड़बुन में ...........


भारतवर्ष में हिन्दू मान्यता के अनुसार दिवाली की रात्रि को लक्ष्मी पूजन के साथ होता था..." था" इसलिए क्योंकि अब तो सभी मार्च में ही क्लोजिंग करते है॥आज रेडियो मिर्ची पर एक आर।जे. को इस क्लोजिंग शब्द की नई परिभाषा देते हुए सुना .लगा की आज की युवा पीढ़ी ऐसा सोचती है तो अवश्य ही उसमें अभी भारतीय संस्कार जीवित है.बुजुर्गों की दी हुई सीख आज भी कायम है... हमारे नेतिक मूल्य आज की "वॉव...कूल " वाली संस्कृति से ऊपर है.उसकी चर्चा वित्तीय मसलों पर न होते हुए भावनात्मक पहलु लिए हुए थी ... सार यह था कि क्यों न हम वर्ष भर में हुए किसी के प्रति अपने मन में पाले हुए बैर के ,गुस्से के,जलन के खाते को भी बंद कर दें. इस बात का लेखा जोखा रखे कि हमसे कंहा गलती हुई है.कितने ऐसे कार्य किये है जिनसे किसी को फायदा हुआ हो. गलती कें लिए क्षमा मांगे और सद्कार्य के लिए सोचे कि आगे भी ऐसा ही करते रहे. आत्मावलोकन करें कि हम अपने लक्ष्य के प्रति कितने सचेत है...गंभीर है... अपने कर्तव्यों से मुँह तो नहीं मोड़ा है...


चूँकि मुझे आंकड़ों से मोह नहीं है तो उसकी भाषा भी नहीं आती है। भावना को अभिव्यक्त देने में सहज महसूस करती हूँ वेसे यह भावनात्मक अवलोकन वार्षिक रूप से जैन धर्म में संवत्सरी पर्व के रूप में तो हिन्दू धर्म में विजयादशमी एवं मुस्लिम परिवारों में ईद का स्वरूप लिए होता है॥ आज जरुरत इस बात की है कि मन इस बात लिए हमेशा सचेत रहना चाहिए ...कि हमसे कोई ऐसी भूल न हो जिसके लिए क्षमा भाव भी कम पड़ जाए ...हम अपनी स्वतंत्रता का नाजायज फायदा तो नहीं उठा रहे है... अपनी बात कहने का अधिकार सबको है परन्तु इसका अतिक्रमण न करते हुए प्रतिक्रमण करे .स्वयं विचारे कि कहीं कोई त्रुटी न हो आगे आने वाले वर्ष में कुछ अच्छा करने का प्राण लें .


अच्छा यही है कि हम इस अकांउट्स के इयर एण्डिंग के साथ अपने सदव्यवहार,सौजन्यता,अपनेपन,अच्छाइयों और सदगुणों की बैलेंस शीट भी बना लें और और नए वर्ष में मन के खातों में सद्कार्यों का अकाउंट खोककर नई शुरुआत करें ..

Friday, March 5, 2010

रंगपंचमी-इन्दौर की विश्व-विख्यात गेर;जहाँ कोई नहीं ग़ैर.


मेरे शहर इन्दौर में अभी तक होली का ख़ुमार उतरा नहीं है. होली के बाद भी रंगों की मार ,आत्मीयता की
बहार ,पकवानों की महक ,भंग का नशा अभी तक यहाँ जारी है क्योकि होली का बाद होली का एक और विस्तार रंगपंचमी के रूप में पूरे मालवा और निमाड़ अंचलों में पूरी धूमधाम से होता है. इसमें टेपा सम्मेलन,हास्य कविसम्मेलन और बजरबट्टू सम्मेलन जैसे कई जमावड़े समाए हैं जो रंगपंचमी के बहाने मेरे शहर की उत्सवधर्मिता का पता देते हैं. पूरे आलम में दिल खोल कर की जाने वाली मस्ती है,छेडछाड है,चुहलबाजी सम्मिलित रहती है.इस सब में चार चाँद लगा देती हैं रंग-रंगीली गेर.गेर एक तरह का चल-समारोह है जिसमें गाना है, नृत्य हैं,जोश है,बड़ी बड़ी मिसाइले हैं जिनसे पाँच पाँच मंज़िलों तक रंगों के फ़व्वारे फ़ूट पड़ते हैं . शहर के पुरातन क्षेत्र से निकलने वाली ये गेर अलग अलग संस्थाओं द्वारा निकाली जाती है. चार से पाँच घंटो पर सड़क पर निकलता अलबेलों का ये कारवाँ इन्दौर की जनता को एक अनूठी उत्सवप्रियता से भर देता है. मन कहता है मेरे शहर से उत्सव के ये सिलसिले ख़त्म ही न हों. अभी होली गई है और फ़िर रंगपंचमी का आ जाना जैसे किसी मुराद के पूरा हो जाने जैसा होता है. स्थानीय छुट्टी होती है इस दिन और पूरा शहर गुलाल और रंग से तर-बतर होकर सड़क पर.अलग अलग भेष धरे जाते हैं,स्वांग की की शान होती है, और महिला-पुरूष मिल कर होली के गीत गाते चलते हैं . मज़े की बात यह है कि इन गेर में कोई औपचारिक निमंत्रण नहीं होता है. कोई भी सम्मिलित हो सकता है और मस्ती का हमसफ़र बन सकता है. न किसी तरह की मनुहार और न इनविटेशन की दरक़ार.
एक लम्हा मेरे शहर का आसमान नीला न होकर लाल-लाल हो जाता है. रंगो के ये बादल मन मोह लेते हैं और जीवन में सदा ख़ुश रहने की प्रेरणा बन जाते हैं. बिना किसी धर्म,जाति और ऊँच-नीच और पद-प्रतिष्ठा के इन्दौर की गेर दिलों की पास लाती है. कोई ग़ैर नहीं ; सब अपने हैं; शायद यह ख़ामोश संदेश भी देतीं हैं मेरे शहर की गेर. कभी मौक़ा मिले तो होली के बाद इन्दौर की गेर का नज़ारा देखने का समय ज़रूर निकालिये…आपको इन्दौरियों की दीवानगी पर रश्क होने लगेगा…मेरे शहर की बात ही निराली है.हो सका तो जल्द ही आपको इस उत्सव की कुछ तस्वीरें आपको दिखाऊँगी.

रंगो के हो रहा आसमान का नीला,पीला और लाल
आज बादल ने मल लिया है माथे पर गुलाल

रंगपंचमी के दिन मेरी ये पोस्ट पढ़ते हुए यदि आपको हमारे मालवा के दो होली गीत सुनने का जी करे तो वरिष्ठ कवि दादा नरहरिजी पटेल की आवाज़ में सुनिये:

रंग तन,रंग मन होली लाई रंग गुलाल

सब हिल मिल आज खेलो होरी


Monday, March 1, 2010

होली आई ! आपने पिलाई की नही; ठंडाई


















होली की ठिठोली में मज़ा बढ़ाने में तो ठंडाई का मज़ा है ही ;
आप एक अच्छे मेज़बान भी साबित हो सकते हैं.
कृपया सबसे नोट सामग्री नोट कर लें:


बादाम : 250 ग़्राम
काजू : 250ग्राम,
गुलाब पन्खुरिया : 20 ग्राम,
खसखस : 100 ग्राम,
मगज : 100 ग्राम,
काली मिर्च : एक चम्मच,
सौफ़ : एक चम्मच,
छोटी इलायची : 10-12,
केसर : एक ग्राम
केवडा : कुछ बून्दे,
गुलाब जल : 2 चम्मच
चीनी : 400 ग्राम
दूध : 4 लीटर ,
कटा पिस्ता : (सजावट के लिए) 30 ग्राम्


विधि:बादाम को अलग से गलाकर रख दें ,काजू गुलाब की पत्ती, खसखस, काली मिर्च, सौफ़, केसर ,मगज आदि को पानी मे एक घन्टे के लिए भीगने दें । उसके बाद महीन पीस लें ,बादाम का अलग से पेस्ट बना लें , थोडा पानी डालकर सारा पेस्ट छान लें । अब दूध को उबाल कर ठण्डा कर लें इसमे चीनी ,केवडा, गुलाब जल डाल दें ; इलायची को छीलकर उसका पावडर बना लें; दूध मे डाल दें .और फ़िर सभी पेस्ट मिला दें । अच्छी तरह सभी चीज़े मिलाने के बाद दूध को फ़्रिज में रख दें । मेहमानों को सर्व करते समय कटे हुए पिस्ते से सजावट कर दें ।

जल्दी कीजिये..होली जो है. वैसे ठण्डाई आप पूरी गर्मियों में बना सकते हैं;यह एक शानदार शीतलपेय है. इम्तेहान के दिनों में बच्चों के लिये भी अच्छा रहता है.उम्मीद है आपके हाथों से ठंडाई बढ़िया बनेगी..विधि आसान है,बनाना भी आसान.तो जल्दी कीजिये मैं आ रही हूँ आपके हाथ की ठंडाई पीने.

मेहमानों को पिलाइये प्यार से ठंडाई;
आप सभी को होली की प्रेम भरी बधाई.

Saturday, February 27, 2010

आओ मिटा ले दिल के मलाल,आपके माथे पर प्रेम का गुलाल



होली का त्योहार आने को है । रंग –बिरंगा त्योहार होली । टेसू पलाश की महक मौर से लदे आम के पेडो पर कूकती कोयल , रसोई से आती लजीज पकवानो की ख़ुशबू,गुलाल रंग अबीर से सजा इन्द्रधनुष, हुड़दंग मचाती बच्चों की टोली,पकी फ़सलों को देख किसान के चेहरे पर उभरती ख़ुशी ,गाँव की बालाओं की होली खेलने की आतुरता.सभी कुछ मिलकर माहौल को रंगीन और खुशनुमा बना देते है। शीत ॠतु का जाना और ग्रीष्म ॠतु के आगमन बीच ॠतुराज बसन्त उत्साह उमंग ले कर आते है। प्रकृति भी अपने सारे रंग बिखेर कर रख देती हैं नव-पल्लव,नव-अंकुर,नव-जीवन के इस वातावरण में हम भी उत्साह उमंग और मस्ती से भरकर रंग गुलाल अबीर उडाते हैं ,पर ये उत्साह और मस्ती कुछ गुम सा होता जा रहा है,मेरे शहर मे तो एक कहावत सी चल पडी है किसी भी त्योहार का मज़ा लेना हो तो पुल पार (यानी शहर का पुराना भाग जिसमें ज़्यादातर मध्यमवर्गीय परिवार रहते हैं )जाओ। ऐसा क्यों होता है कि जैसे-जैसे हम उन्नति करते जाते है भौतिक रुप से सम्पन्न होते जाते हैं,हम अपने मे ही सिमटते जाते है;विरासत और परम्परा से दूर हटते जाते हैं ?

पहले होली का स्वरुप कुछ अलग होता था। पूजा होती , फ़ाग उत्सव होता था , हुरियारों की टोलियाँ निकलतीं,झूम झूम कर गीत गाए जाते...(तब होली का फ़िल्मीकरण नहीं हुआ था )हर कोई होली के रंग मे रंग जाता था। रंग में भंग ना पड़े इसलिए दादी माँ कई पकवान (श्रीखण्ड, मीठी –नमकीन पुडी,दही-बडे,ठंडाई )एपहले से ही बना कर रख देती थी ताकि घर की महिलाएँ इस त्योहार में पूरे उल्लास से सम्मिलित हो सकें.

मुझे होली के रंग से रंगे–पुते चेहरों से बहुत डर लगता था। पापा,चाचा के आते ही मैं दादी माँ के पीछे छुप जाती थी। मुझे याद है जैसे ही आस–पास के किसी घर में ज़ोर से दरवाजे भड़ीकने (पीटने) की आवाज आती तो पता चल जाता कि उनके घर होली शुरु होने वाली है और मैं डर के मारे काँपती रहती,पेट में अजीब सी गुड्गुडी होने लगती,ज़रा सी कोई आहट होती तो लगता आ गये हुरियारे और उनकी हुड़दंग . हमारे घर के सामने एक परिवार रहता था,उनके यहां दामादजी अपने ससुराल मे सलहज को होली खिलाने के लिये आते थे। भाभी अगर दरवाजा नहीं खोलती तो बेचारे दामाद खिड्की से कुदकर घर मे घुस जाते,”बुरा ना मनो होली है” कह कर घर भर को रंग देते, और पूरा घर उनसे बचने की कोशिश करता.इस कश्मकश मे खूब शोर होता, भागदौड़ मचती और वह नज़ारा जमता कि मेरा मन होता कि मैं भी इस धमाल में शामिल हो जाऊँ.लेकिन बन्द कमरे मे से सिर्फ़ आवाजे ही सुनाई देती थी . शाम को नल मे पानी आने का वक्त होने पर ही मैं कमरे से बाहर आती थी,तब सब नहाते और फ़िर बाजार जा कर ठ्न्डाई पीते थे। एक बार माँ ने ग़लती से भांग वाली ठ्न्डाई पी ली थी उसके बाद माँ ने परदादी से पूछ कर घर मे ही ठ्न्डाई बनानी शुरु कर दी. आज भी वो ठ्न्डाई बहुत याद आती है माँ से रेसेपी भी ली पर माँ के हाथ का वह स्वाद नही आता है.शायद तब की ठ्न्डाई मे उस माहौल की मस्ती,हुड्दन्ग ,रंग ,गुलाल का स्वाद भी रहता होगा। और ज़रूर रहती होगी वह आत्मीयता जो मध्यमवर्गीय परिवेश में भी अपनेपन से लबरेज़ होती थी.

हाँ एक बात और याद आ गई.... जब शाम को सब लोग बदरंग से दिखते;मैं गर्व से फ़ूली न समाती,क्योंकि मैं साफ़ सुथरी और गोरी दिखती बाकी लोग रंग न निकल पाने की वजह से रंगेपुते दीखते तो अजीब सी खुशी होती. आज नज़रें उन्हीं बदरंग चेहरों को ढूँढती है जो आजकल गुम से हो गए हैं । उन पर होली के रंगो के बजाए कुछ दूसरे ही रंग दिखाई देते है,कोई नफ़रत का ,दुश्मनी का, ईर्ष्या,तमस और तनाव तथा हैवानियत का रंग लगाए हुए चेहरे। अब इन रंगे पुते चेहरो से डरकर घर मे बन्द होना पड्ता है,

लाल, गुलाबी, हरा, पीला ,नीला, काला यह रंग ही नहीं और भी रंग हमारे जीवन को रंगीन बनाते है,दोस्ती का रंग, प्यार का रंग, अमन का रंग , भाईचारे का रंग,दुख़ –दर्द बाँटने का रंग । जब इन दिनों समभाव और सौजन्य के जज़बात फ़ीके नज़र आने लगे हैं तो होली भी कभी कभी निहायत औपचारिक लगने लगती है ।यह भी देखने में आ रहा है कि हम घर से बाहर निकल ही नहीं रहे हैं.गुनगुनाना नहीं चाह रहे हैं..प्यार भरी ठिठोलियाँ बिसराते जा रहे हैं...किसी घर में कोई ग़मी हो गई है तो उसके घर जाकर सांत्वना नहीं देना चाह रहे हैं.....गली,मोहल्ले और कॉलोनी में किसी के माथे पर गुलाल लगाना नहीं चाहते.इसी बेरूख़ी की वजह से बहुत औपचारिक से होली-मिलन समारोह चल पड़े हैं.सजावटें,डीजे सिस्टम्स और महंगे व्यंजनों के स्टॉल्स.हमें चाहिये कि आज जब पानी की किल्लत की वजह से हम सूखी होली खेलने की बात कर रहे हैं हमें चाहिये कि इसमें भावनाओं के कुछ रंग ऐसे मिला लें जो जीवन भर न उतरें( मैं तारकोल ,सिल्वर या ऑइल पेन्ट की बात नहीं कर रही हूँ ) मैं बात कर रही हूँ ऐसे रंगो की जो हमारे मन पर लगे और ताउम्र हमारे जीवन को रंग़ीन बनाए रखें । ये रंग हो सकते हैं आदर के,ख़ुलूस के,अपनेपन,पास-पडौस से दु:ख-दर्द बाँटने के.आप सबको होली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ...

Sunday, February 21, 2010

मालवा का वैभव बढ़ाने वाले कविवर श्री नरहरि पटेल




कुमार गंधर्व,प्रहलादसिंह टिपानिया,बालकवि बैरागी,राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी के अलावा जिस ख़ास शख़्सियत से मालवा के वैभव का पता मिलता है उनका नाम है नरहरि पटेल. अपनी बेजोड़ कविताओं और गीतों के ज़रिये वे पूरे मालवा के आदरणीय पात्र हैं.रतलाम ज़िले के छोटे से गाँव सैलाना में जन्मे नरहरिजी को विरासत में ही संगीत,नाटक और कविता का संस्कार मिला. सैलाना आज़ादी के पहले एक रियासत रहा है और वहाँ की ककड़ी और कैक्टस गार्डन की पूरी दुनिया में ख्याति है.नरहरिजी पचास के दशक में इन्दौर आए और यहाँ भी एक ऐसे मोहल्ले में आकर बसे जहाँ उस्ताद अमीर ख़ाँ,सारंगिये उस्त्ताद मुनीर ख़ाँ,तबला नवाज़ अलादिया ख़ाँ और धूलजी ख़ाँ जैसे बेजोड़ फ़नकार रहा करते थे. नरहरिजी कॉलेज के दिनों में ही प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए जहाँ रमेश बख़्शी,शरद जोशी, चंद्रकांत देवताले,कृष्णकांत दुबे और रामविलास शर्मा जैसे प्रतिभासम्पन युवाओं की आवाजाही थी.वे बाद में जन नाट्य संघ से भी जुड़े.1957 में जब आकाशवाणी इन्दौर की शुरूआत हुई तब वे लोक कलाओं के ज्ञाता श्याम परमार की नज़र में आए और अतिथि कलाकार में रूप में इस नये रेडियो स्टेशन से जुड़ गए. बाद में उन्हें सत्येन्द्र शरत,भारतरत्न भार्गव,स्वतंत्रकुमार ओझा और प्रभु जोशी जैसे रचनाशील निर्देशकों के कई नाटकों में अपनी प्रभावी आवाज़ की सेवाएँ देने का मौक़ा मिला. आकाशवाणी इन्दौर के बच्चों के कार्यक्रम,ग्राम सभा और युववाणी कार्यक्रम में भी उनकी सक्रिय हिस्सेदारी रही.

(एक दुर्लभ चित्र में नरहरिजी(एकदम बाँये)महादेवी वर्मा और डॉ.शिवमंगलसिंह सुमन के साथ.पीछे मालवा के समर्थ कवि रमेश मेहबूब और जानेमाने पत्रकार श्रवण गर्ग.)



दिल्ली में सन 56 हुए इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन सम्मेलन में नरहरिजी की मालवी रचनाएँ सुरेन्दर और प्रकाश कौर की आवाज़ में रेकॉर्ड की गईं थीं इसी दौरान आपको जानेमाने अभिनेता बलराज साहनी से मुलाक़ात का मौक़ा भी मिला और उन्होने नरहरिजी की प्रतिभा को बहुत सराहा और मुम्बई चले आने का आग्रह भी किया. नरहरिजी ने मालवी कविताओं में नये नये प्रयोग किये, ख़ास कर उन्होंने ग़ज़ल विधा में बहुत लाजवाब काम किया जिसे डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन और मुनव्वर राना ने बहुत सराहा.
नरहरि पटेल पिचहत्तर पार आकर भी सक्रिय हैं और आज भी लिखने पढ़ने में पूरा समय देते हैं. इन्दौर और पूरे मालवा की सांस्कृतिक सरज़मीन के इस सरलमना व्यक्तित्व को हिन्दी सेवा में संलग्न एक सदी पुरातन संस्था श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति द्वारा श्रीनिवास जोशी सम्मान से 20 फ़रवरी को नवाज़ा. बड़ी संख्या में मौजूद संस्कृतिकर्मियों के बीच नरहरिजी को सम्मानित किया गया.मध्यप्रदेश के पूर्व महाधिवक्ता आनंदमोहन माथुर,इन्दौर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ.उमरावसिंह चौधरी,समिति के पदाधिकारी बसंतसिंह जौहरी,पद्मा सिंह,रामाकिशन सोमानी,वंदना जोशी और प्रकाश जोशी ने नरहरिजी का स्वागत किया. नरहरिजी ने अपनी प्रतिभावना व्यक्त करते हुए कहा कि बोली को बचाने के लिये सबसे पहले उसकी घर-आँगन में वापसी ज़रूरी होगी. नई पीढ़ी से बोल व्यवहार से ही बचेगी हमारी मीठी मालवी और उसकी सुदीर्घ विरासत.


श्रीनिवास जोशी का जन्म भी उसी बड़नगर में हुआ जहाँ कवि प्रदीप जन्मे थे. श्रीनिवासजी को मालवी के प्रथम गद्यकार होने का गौरव प्राप्त है. वे पचास के दशक में पुणे और मुम्बई चले गए और भारतीय फ़िल्म्स डिवीज़न की अनेक फ़िल्मों के लिये आलेख रचे. मालती माधव नाम की फ़िल्म बना कर श्रीनिवास जी ने उस ज़माने में लाखों का घाटा झेला. उन्होनें मीनाकुमारी अभिनीत फ़िल्म भाभी की चुड़ियाँ के संवाद भी लिखे. श्रीनिवासजी को कवि नरेन्द्र शर्मा,बालकृष्ण शर्मा नवीन और नरेश मेहता जैसे अनेक स्वनामधन्य हिन्दी सेवियों की निकटता मिली. उन्होंने सुधीर फ़ड़के निर्मित फ़िल्म वीर सावरकर के संवाद भी लिखे. वे हिन्दी,मालवी और मराठी भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे. वारे पठ्ठा भारी करी शीर्षक से उनका निबंध बहुत सराहा गया था. चार बरस पूर्व उनके निधन के बाद जोशी परिवार ने मालवा के कला और साहित्य सेवियों को सम्मानित करने का सिलसिला शुरू किया. इसके अंतर्गत कृष्णकांत दुबे,बालकवि बैरागी और नरेन्द्रसिंह तोमर को सम्मानित किया जा चुका है. 20 फ़रवरी को सम्पन्न हुए इस जल्से में न केवल नरहरिजी सम्मानित हुए बल्कि वह ईमानदार कलाकर्म और मालवा का लोक मानस सम्मानित हुआ जिसने कभी किसी पद,यश और प्रशस्ति की कामना नहीं की. नरहरि पटेल जहाँ भी होते हैं वहाँ मालवा की सरल,भावुक,आत्मीय और निश्छल परम्परा जीवंत होती है . नरहरि दादा को हम सभी मालवावासियों का हार्दिक अभिनंदन और वंदन.

Wednesday, February 3, 2010

एक मैथिली लोककथा - पत्थर है

ब्याह के बाद पहली बार बहू को लेकर सास चली मंदिर पूजा करने ।
आगे-आगे सास, पीछे-पीछे बहू। तन में हुलास, मन में उलास,
जैसे अपने चूज़े को उड़ना सिखाने चली हो च़िडिया।
प्रवेश द्वार पर दोनों और दो-दो भयंकर प्रतिमाएँ, बड़े-बड़े हाथी,
एक पॉंव यूँ उठाए हुए, मानो कुचलकर रख देंगे।
भय से ठमक गई बहू।
सास ने पीछे मुड़कर देखा, "क्या हुआ, रुक क्यों गई?'
बहू ने डरते-डरते दिखाया, "कुचल देंगे,' "ये...? सास ने अपने हाथों से प्रतिमा के पॉंवों को छू-छूकर दिखाया, "कुछ कर पाये? नहीं न? अरे ये बेचारे क्या कर सकते हैं ? पत्थर हैं।'
दोनों फिर आगे बढ़ीं।
सिंह द्वार पर दोनों ओर दो-दो भयंकर प्रतिमाएँ, बड़े-बड़े सिंह, जबड़े यूँ खुले हुए मानो चबा जाएँगे।
सास ने पीछे मुड़कर देखा, "अब क्या हुआ ? रुक क्यों गई ?'
बहू ने डरते-डरते दिखाया, "खा जाएँगे।'
"ये...? सास ने अपने हाथों से प्रतिमा के खुले जबड़े और नुकीले दॉंत को छू-छूकर दिखाया, "कुछ कर पाये ? नहीं न ! अरे ये बेचारे क्या कर सकते हैं ! पत्थर हैं।'
वे फिर आगे बढ़ीं।
अब वे प्रतिमा के सामने थीं। सास ने पूजा शुरू करनी चाही लेकिन बहू कहॉं थी ?
पीछे मुड़कर देखा, बहू काठ की तरह फिर ठमक गई थी।
अब क्या हुआ ?' सास ने पूछा, पूजा नहीं करेगी ?'
बहू का जवाब था….पत्थर है

Monday, January 25, 2010

बच्चे का क़ामयाब होना ज़रूरी है या अच्छा इंसान होना ?


एक टीवी शो की प्रतिभागी १२ साल की लड़की ने आत्महत्या कर ली...ये ख़बर सुनी तो मन विचलित हो गया. मन ने प्रतिप्रश्न किया कि हम हमेशा अपने बच्चों में क़ामयाबी ही क्यों तलाशते हैं, इंसानियत क्यों नहीं,सलाहियतें क्यों नहीं,नेकियाँ क्यों नहीं,क्रिएटिविटि क्यों नहीं ?
यह भी विचार विचलित करता रहा कि क्यों हम अपने बच्चे को सर्वगुण सम्पन्न देखना चाहते हैं.उससे अधिक अपेक्षाएं कर के क्या हम उसे उसकी उम्र से बड़ा नहीं बना रहे हैं.उसका बचपन नहीं रौंद रहे हैं.ये तो समझना ही पड़ेगा कि कच्चा मिट्टी का घड़ा अपने पानी नहीं टिका सकेगा.

हम बच्चों से बड़ों जैसी उम्मीदें क्यों करते हैं.उसने कोई ग़लती की नहीं और हम चिल्लाना शुरू कर देते हैं..इतने बड़े हो गए अभी तक अक़्ल नहीं आई तुम्हें.पता नहीं तुम कब समझोगे...कब बड़े और ज़िम्मेदार बनोगे... बच्चो से हम बड़ो जेसी उम्मीदें क्यों करते है ? हम क्यों चाहते है...जबकि हक़ीक़त यह है कि हम भी उसकी उम्र में लगभग वैसी ही हरक़तें या ग़लतियाँ करते थे जैसी वह कर रहा है या कर रही है.
इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि हम अपना प्रारब्ध लेकर आए हैं और वह अपना. अपने प्रारब्ध में उसका प्रारब्ध तलाशना बेमानी है. यह भी सोचियेगा कि आप जो भी हैं आज क्या उसके निशान कल थे...बीते कल आप भी कच्चे ही थे.आते आते ही आपमें एक तरह की गंभीरता आई और ज़िन्दगी को क़ामयाब बनाने का नज़रिया और दृष्टिकोण मिला.

ध्यान रहे बच्चे की प्रतिभा को सहज रूप से आगे बढ़ने का मौक़ा और वातावरण दीजिये. सिर्फ़ चिल्लाने और क्रोध करने से कुछ नहीं होगा. किसी किसी बच्चे को ज़िम्मेदार बनने में थोड़ा समय लगता है.इस प्रतिस्पर्धी समय में उसे थोड़ा सम्हलने का मौक़ा दीजिये. रियलिटी शोज़ या मीडिया हाइप के दौर में दूसरे क़ामयाब बच्चों को देखकर नाहक अपने बच्चे पर प्रेशर मत डालिये कि तुम्हें भी ऐसा ही बनना है. बच्चे की नैसर्गिक प्रतिभा को देख भाल कर उसे तराशने का ज़िम्मा आपका है. आप घर में ही उसके प्रतिस्पर्धी मन बन जाइये. बच्चे में प्रतिभा ठूँसने की कोशिश मत कीजिये. न पढ़ाई के मामले में , न ही किसी दीगर क्रिएटिव एक्टीविटी में. देखा-देखी के काम ठीक नहीं होते. जो दूसरा बच्चा आज आपको सफल दिखाई दे रहा है, हो सकता है उसमें असाधारण प्रतिभा हो या उसके माता-पिता ने उसकी प्रतिभा निखारने में अतिरिक्त प्रयास किये हों वैसा वातावरण क्रिएट किया हो.

बच्चों की मस्ती,खेल और बेफ़िक्री में अपना बचपन तलाशने की कोशिश कीजिये,आपको भी अपने बच्चे के साथ बच्चा बन जाना आना चाहिये. उसका दोस्त बनना आना चाहिये,उससे बेहतर संवाद स्थापित करना आना चाहिये. सिर्फ़ स्टेटस या अपने मानसिक संतोष के लिये अपने बच्चे को किसी कोचिंग,डांस क्लास या कम्प्यूटर क्लास में भेजना उसका समय और अपना पैसा नष्ट करना ही है. इस ज़बरदस्ती से बड़ा नुकसान यह भी है कि आप अपनी ज़िद के कारण अपने बच्चे को अपने से दूर ही कर रहे हैं.

धीरज रखिये हर चीज़ का समय होता है. जैसे कि फूल के खिलने का या डाली पर फल के पकने का ...बेमौसम पकाए गए या खाए गए फल कभी भी मिठास नहीं देते.आपका संयम,स्नेह, मार्गदर्शन,मित्रता और ज़रूरत पड़ने पर लागू किया गया अनुशासन आपके बच्चे का सुनहरा भविष्य रच सकता है....

Thursday, January 14, 2010

सर्द मौसम...उसकी विवशता ;मेरी विवशता


सुबह उठते ही आज ठण्ड कुछ ज्यादा ही लग रही थी .सर्दी ने अपना प्रकोप दिखाना शुरू कर दिया.जल्दी से स्वेटर ,शॉल डाल कर काम में जुट गई ,बेटी को स्कूल के लिए तेयार जो करना था . मन तो हो रहा था कि सुबह कि गुनगुनी धुप में बैठ कर चाय का आनंद लिया जाए .लेकिन इस आनंद में बेटी कि स्कूल बस छूट जाती .चाहे सर्दी हो या बारिश या गर्मी कुछ काम अनिवार्य होते हैं.. उन्हें मौसम के भरोसे नहीं टाला जा सकता हे.शायद में ग़लत भी हो सकती हूँ. हमने अब ऐसा समाज और परिवेश बना लिया है कि छोटे बच्चों को भी शानदार स्वेटर्स,जर्किन, ज़ुराबें पहनाकर बस में स्कूल रवाना कर देते हैं.अब वो नज़ारे नज़र नहीं आते जब ठण्ड के दिनों में हमारी टीचर हमें बला सी ठंडी कक्षाओं से निकालकर स्कूल के अहाते में गुनगुनी धूप में ले आती थी.किलकती दूप में पकृति कितनी अनोखी गर्माहट बिखेरती थी. यह गर्माहट रिश्तों में भी बड़े प्यार से घुस आती थी और सर्वत्र एक आत्मीय संसार की सृष्टि करती थी.

आज जब बेटी को स्कूल बस में रवाना कर जब मैं घर आई तो किचन में नाश्ते की तैयारी में लग गयी . मन चाह रहा था कि आज धूप का आनंद ले लिया जाए लेकिन अभी तक महरी का पता नहीं था.साढ़े आठ बजे तक वह आई मेरे कुछ कहने से पहले ही वह भी आज ठण्ड को कोसने लगी .मेरे द्वारा गरम चाय देने पर वह काम करते करते ही बताने लगी बीबीजी इतनी ठण्ड में भी घर का सारा काम निपटा कर ,पूरे घर का खाना बनाओ और फिर पैदल पैदल आपके यहाँ काम पर आओ तो देर तो हो ही जाती है न. उसकी बात में बड़ी मासूमियत और ईमानदारी झलक रही थी.हमारे घरों में तो हीटर,गीज़र या गैस जैसे साधन तो हैं नहीं . ठिठुरते हुए ही सारा काम निपटाना पड़ता है हम तो सिर्फ धूप के भरोसे ही अपनी ठण्ड भगाते हैं और काम पर लग जाते हैं.पर बीबीजी इस निगोड़ी धूप से तो चुल्हा नहीं जलता न ?मेरे मन मे उसके देरी से आने के पूर्व उठ रहा ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया. सोचा कितनी विवश है यह और उसका परिवार. और हम साधन सम्पन्नलोग भी कितने विवश हैं साधनों के इस्तेमाल के लिये. उसकी विवशता और मेरी विवशता में कितना फ़र्क़ है न ? वे हर लम्हा अपनी थकन मिटाने या साधन जुटाने के लिये प्रकृति के आसरे हैं और हम सब ने अपनी ज़िन्दगी में साधनों ही साधनों का अम्बार लगा लिया है. मैं उसकी बात से सहमति जता कर अपने काम में लग गई.

Tuesday, January 5, 2010

झील का स्वच्छ जल-एक बोध कथा



एक बार गौतम बुद्ध अपने कुछ शिष्यों के साथ एक गॉंव से दूसरे गॉंव जा रहे थे। बीच सफ़र में उनके मार्ग में एक झील पड़ी। बुद्ध ने अपने एक अनुयायी को कहा कि उन्हें बड़ी प्यास लगी है और वो झील से पानी ले आए।

शिष्य चल कर झील तक पहुँचा। तभी उसने देखा कि एक बैलगाड़ी झील पार कर रही थी जिसके कारण झील का पानी बहुत मैला एवं कीचड़युक्त दिखाई पड़ रहा था। शिष्य ने विचार किया कि ऐसा पानी लेकर वो बुद्ध के पीने के लिए कैसे लेकर जा सकता था ? वो पलट कर बुद्ध के पास आ गया और उनसे कहा, "भगवन, झील का पानी कीचड़ वाला है और आपके सेवन योग्य नहीं है।' विश्राम करते-करते कुछ समय और बीता तथा एक बार पुनः बुद्ध ने उसी शिष्य को पानी के लिए भेजा। शिष्य आज्ञा का पालन करते हुए झील तक गया और उसे सुखद आश्चर्य हुआ, यह देखकर कि झील का पानी एकदम साफ़-स्वच्छ था। कीचड़ झील की सतह में बैठ चुका था तथा पानी पीने योग्य था। उसने अपने पात्र में जल भरा और बुद्ध के पास पहुँच गया।

बुद्ध ने पहले पात्र के जल की ओर देखा, उसके पश्चात् दृष्टि उठाकर शिष्य की ओर देखने लगे। उन्होंने कहा, "तुमने देखा कि क्या हुआ? तुमने उस पानी को वैसे ही छोड़ दिया, तो कीचड़ धीरे-धीरे बैठ गया और तुम्हें साफ़ पानी प्राप्त हुआ। हमारा मस्तिष्क भी ऐसा ही कुछ है। जब भी वो अशांत हो या उसमें अधिक उथल-पुथल हो तो उसे वैसा ही छोड़ दो। उसे थोड़ा व़क़्त दो। तुम देखोगे कि कुछ समय बाद वो स्वतः ही स्थिर हो जाएगा। मन को शांत करने के लिए अपनी ओर से अतिरिक्त प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं।' यह ग़ौरतलब है कि "मन की शांति' पानी कोई कठिन कार्य नहीं है। यह तो एक स्वाभाविक, सहज रूप से होने वाली प्रक्रिया है।

बुद्ध ने आगे कहा, "यह भी सदैव याद रखो कि तुम बहुत ही सुरम्य और शांत वातावरण में रहते हुए भी यह महसूस कर सकते हो कि तुम्हारा अन्तर्मन बहुत अशांत है। ऐसी स्थिति में वातावरण की सुन्दरता तुम्हारे किसी काम की नहीं। वहॉं तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। तुम्हें मन से शांत रहना है तो शांति को अपने अन्दर की गहराई में उतारना होगा। उसे तुम्हें तुम्हारे अस्तित्व से मन तक और मन से बाहरी परिवेश में लाना होगा। जब शांति अपने अन्दर होती है तो वह बाहर भी प्रस्फुटित होने लगती है। वह तुम्हारे चारों ओर फैल जाती है और संपूर्ण वातावरण को शांतिमय बना देती है। उसका असर दूर-दूर तक देखा जा सकता है। अतः मन जैसा है उसे वैसा ही रहने दो, धीरे-धीरे वो स्थिर हो जाएगा और तुम्हें एक सुखद अनुभूति से भर देगा।'