Wednesday, September 28, 2011

लता एक इबारत ,एक इबादत

कैसा सुखद संयोग है ! आज के दिन दो दिव्य शक्ति की आरधना का ……नारी शक्ति रुप की पूजा का,साधना का,अर्चन का। आज ही नवरात्र का प्रथम दिवस और आज ही स्वर कोकिला लता मंगेशकरजी का जन्म दिन । वैसे तो ‘लताजी’ किसी परिचय से परे है संगीत अपनी पह्चान ‘लताजी’ के रूप में दे तो भी कम है । सारी उपमाएं,उपाधियाँ,सम्मान ‘लताजी’ को सम्मानित कर स्वयं सम्मानित होते हैं। अपने क्षेत्र में शिखर तक कैसे पहुँचा जा सकता है इसका जीवंत उदाहरण है लताजी ।

साधारण से साधारण इन्सान भी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए लताजी के गाए गीतों पर ही आश्रित रहता है मानव मन की भावनाओं,विचारों का प्रतिबिंब है लताजी का गायन । जीवन का ऐसा कोई पहलु नहीं होगा जिसे लताजी ने अपनें गीतों से न छुआ हो,कोई भी गीत देख लिजिये ,उसमें स्वरित शब्द ,धुन सुन कर हर शख्स यही कह उठेगा कि हाँ ‘यही तो मैं कहना चता था ,इसी सुकून की तो मुझे तलाश थी । इन सबसे उपर अपने ज्ञान का अभिमान न होना उनकी महानता की निशानी है ।

‘आशाजी’ उन्हें ‘न भूतो न भविष्यति’ तो बलराम जाखड जी उन्हें एक संस्था कहते है ‘फ़ालके पुरस्कार, भारत रत्न ,स्वर कोकिला, आदि अनगिनत पुरस्कार से सम्मान स्वयं सम्मानित हुए है । तो कोई कहता है कि ‘लता के सुरों के साम्राज्य का कभी अन्त नहीं होता,तो कभी उन्हें जीवित किवदंति कहा जाता है ऐसे मैं आम जनमानस की तरह मेरे जेहन में भी कई प्रश्न उठने लगे,जैसे नारी जो आधी मानवता का हिस्सा है उस नारी ने अपने समय में नारी के संघर्ष को कैसे जिया होगा?संसार में त्याग ,समर्पण, साधना की मुर्ति ‘लताजी’ क्या बचपन से ही एसी थी ? इन सवालों के जवाब ,लताजी के जीवन के बारे में जानने की उत्कंठा ने उनके बारे में लिखी किताबें खोलने को प्रेरित किया ।

संगीत की साम्राज्ञी कही जाने वाली लताजी का जीवन कठिन संघर्षों की कहानी रहा है ।मात्र तेरह वर्ष की आयु में जब बच्चें खिलोनों के साथ खेलते हैं ,माता –पिता से जिद करते हैं तब पिताजी का पूरे परिवार को लताजी के भरोसें छोड कर इस दुनिया को अलविदा कह देना...बाल मन ने कैसे अपने बचपन को विस्म्रुत कर परिवार की जिम्मेदारी को निभाया होगा ?

पिता द्वारा विरासत में मिले खजाने स्वर लिपि की किताब और एक तानपुरा को अपनाकर पार्श्वगायन के जरिये अपने परिवार की देखभाल की ,यही खजाना आज दुनिया को भी बाँट दिया । एक मराठी फ़िल्म ‘माझे बाल’ में अपने सभी भाई-बहनों के साथ एक द्र्श्य में शामिल होने के बारे में बताते हुए लताजी कहती है कि, ‘अगर उस फ़िल्म में हम नही आते तो वास्तविक जीवन में भी हम अनाथ रह जाते। इतनी ही पीड़ा ,ग़म, मार्मिकता जो उनके गीतों में रूह तक मह्सूस होती है उनके जीवन का सच नारी जीवन की संपूर्णता को उन्होनें नकार दिया,मन की वही तपस्या का तेज आज उनके मुखमंडल पर चमकता है,संघर्ष की साधना उनके स्वरों को रोशन करती है। चूँकि लताजी मेरे शहर इन्दौर में जन्मी हैं तो उन पर हम सबको कुछ ज़्यादा ही अभिमान है। वे हैं भी तो इसके क़ाबिल ....है न...बहुत सालों बाद शारदीय नवरात्र का पहला दिन इतना सुरीला लग रहा है।सृष्टि का सबसे मधुर स्वर जो जन्मा है इस दिन.

यदि आप चाहें तो लताजी के कुछ दुर्लभ गीत श्रोता-बिरादरी पर चल रहे लता स्वर उत्सव पर सुन सकते हैं.

Wednesday, September 21, 2011

एक अधूरा ख़्वाब ………………यात्रा संस्मरण


हर इन्सान ख्वाब देखता है कुछ ह्क़ीकत बन जाते है तो कुछ अधूरे सपनें बन जाते है ऐसा ही एक ख्वाब पापा की फाईलों में यात्रा संस्मरण की हस्तलिखित पान्डुलिपि के रुप में सुरक्षित मिला.... सन 1973 के समय के परिवेश, संसाधन, और दिनचर्या का सुन्दर उदाहरण है यह यात्रा संस्मरण । आज के समय में जब हम पलक झपकते ही कहीं भी पहुचं जाते है,फ़ेसबुक ,टिवटर ,3जी,के इस दौर में यह संस्मरण आपको ब्लेक एन्ड व्हाइट टीवी की याद दिला सकता है विकिपीडिया के इस युग में कोई भी जानकारी बस एक क्लिक पर हाज़िर है तब इसे देखकर लगता है कि उस जमाने में इसी तरह की पुस्तकें लिख कर जिज्ञासुओं के लिए जानकारी उपलब्ध कराई जाती थी 7 श्रंखलाबद्ध कड़ियों का यह सस्मरण बड़ा जरुर लग सकता है, पर इसकी मूल भावना को यथावत रखने के लिए यह आवश्यक है केशरियाजी पहुचनें तक रास्ते में आने वाले तीर्थों उदयपुर,केशरियाजी,राणकपुर महावीर मुछाला,नारलोई,नाडोल,वरकाणा,चित्तौड जैसे नगर तक की यात्रा के विवरण, यात्रा में आने वाले व्यय पत्रक का अन्त में विवरण के साथ तीर्थयात्रा के मह्त्व, साथ इस संस्मरण को प्रारंभ किया गया है,इसे देखकर मह्सूस होता है कि प्रकाशित करने के लिए ही लिखा गया था ……। हो सकता है इसे पोस्ट के रुप में जारी कर पापा का ख्वाब ह्क़ीकत में बदल जाए। तो बिना किसी अन्य भूमिका के इसे जारी करती हूँ

।।श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः।।

नामाकृति द्रव्य भावैः, पुनतस्त्रिजगज्जनम्।

क्षेत्रे काले सर्व्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महै।।

समस्त लोकों और सब काल में अरिहन्त परमात्मा तीर्थंकर देव जगत के प्राणियों को पवित्र करते हैं। सभी क्षेत्रों और सब काल में अरिहन्त परमात्मा का प्रभाव व्याप्त है उनके नाम, आकृति, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा तीर्थंकर परमात्मा का प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। इन चार निक्षेपों में आकृति (स्थापना) निक्षेप का अत्यधिक महत्व है। संसार में कई स्थानों पर स्थापना एवं आकृति के प्रभाव को ज्ञात करने के लिए पवित्र तीर्थस्थल परमात्मा प्रभाव के प्रमाण रूप में बने हुए हैं। हज़ारों वर्षों के परमात्मा प्रभाव से इन क्षेत्रों तीर्थ स्थानों की महत्ता है और भविष्य में भी बनी रहेगी। क्योंकि आकृति निक्षेप के रूप में परमात्म का प्रभाव प्राणियों को सभी काल में पवित्र करेगा। आकृति (स्थापना) निक्षेप के रूप में लाखों आत्माएँ पवित्र हुई हैं। तीर्थयात्रा के माध्यम से व्यक्ति परमात्म प्रभाव का अनुभव करता है। इसलिये तीर्थयात्रा को मानव जीवन का महत्वपूर्ण कर्तव्य बताया है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में इस कर्तव्य को पूर्ण करने का समय आता है। ऐसा हो सकता है कि किसी व्यक्ति के जीवन में यह समय जल्दी जाए और किसी के जीवन में देर से। हमारे जीवन में भी यह कर्तव्य निभाने का एक सुवर्ण अवसर आया। पू. गुरूदेव के समाचारों के अनुसार उचित समय पर पहुँचने की तैयारियाँ की गईं।

पूज्य मुनिराज श्री भद्रगुप्त विजयजी महाराज सा. का एक पत्र हमें प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था पू.मु. श्री भद्रगुप्त विजयजी .सा. को 25 जनवरी 1974 कोधर्मप्रभावककी विशिष्ट पदवी से अलंकृत किया जावेगा अतः उपस्थिति आवश्यक है। अपने अन्य साथियों की बात तो मैं नहीं करूंगा किंतु जहाँ तक मेरा प्रश्न है, जीवन में तीर्थयात्रा का क्रम पू. गुरूदेव की प्रेरणा से प्रारम्भ होता है। उन्हीं की प्ररेणा से सर्वप्रथम ‘‘प्रकट प्रभावी श्री शंखेश्वर जी’’ की तीर्थ यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ था। अपने जीवन की यह पहली तीर्थयात्रा थी। बहुत समय पहले जब तीर्थयात्रा का महत्व नहीं समझा था श्री सिद्धाचल जी की यात्रा करने का अवसर मिला था किंतु उस समय तीर्थ और तीर्थयात्रा के बारे में कोई विशेष अनुभव नहीं था। तीर्थयात्रा पर जाने वाले हम तीन यात्री थे, श्री शुभकरणजी कौचरसा, श्री सुरेशचंद्रजी भंडारी और श्री जयंतीलालजी जैन।

पवित्र तीर्थ केशरियाजी के साथ-साथ आसपास के अन्य तीर्थों के दर्शनों का भी कार्यक्रम रखा गया। इसमें प्रमुखतः श्री केशरियाजी उदयपुर, श्री राणकपुर, सादड़ी, घाणेरावजी, मुछाला महावीरजी, नारलोई, नाड़ोल, बरकाण, कांकरोलीजी एवं करेड़ा पर्श्वनाथ जी तीर्थों के दर्शन का लाभ लेना था। इन सब तीर्थों के दर्शन करने के लिए कुल चार दिन का कार्यक्रम था किंतु इस क्रम को पूरा करने के लिए साढ़े पांच दिन लग गये। जो भी हो; कार्यक्रम व्यवस्थित रहा। अपनी-अपनी व्यवस्था की और वह शुभ समय आया जब माह वदी अमावस के दोपहर हम अपने लक्ष्य को पूर्ण करने के लिये चल दिये।