Thursday, December 31, 2009

क्या बिटिया भी आज रात न्यू ईयर पार्टी में जा रही है ?


कोई बात नहीं ...नये ज़माने के सोच के साथ हमें भी चलना पड़ेगा लेकिन दो तीन बातों का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा....

1 ज़रूर जानकारी रखिये कि वह कहाँ जा रही है. ऐसे नहीं चलेगा कि मुझे अभी पता नहीं कि पार्टी कहाँ है.

2 यदि वह मोबाइल रखती है तो ठीक वरना उसकी किसी सहेली या वहाँ मौजूद रहने वाले किसी साथी का मोबाइल नम्बर आपके पास ज़रूर होना चाहिये.

3 ध्यान रहे कि वह ऐसी पार्टी में न जाए जहाँ मद्यपान हो सकता है. क्योंकि वहीं जाकर बात बिगड़ती है.

4 नये ज़माने का परिधान समय की मांग करता है लेकिन ध्यान रहे आपकी बेटी ऐसे कपड़े पहने जिसमें गरिमा हो और वह किसी भी तरह से देह प्रदर्शन की श्रेणी में न आते हों.

5 इस बात की ख़बर रखना भी आवश्यक है कि क्या आपकी बेटी की कोई सहेली भी
आज पार्टी में जा रही है और उसके अभिभावकों को जानकारी है या नहीं.हो सके तो अपनी बेटी की सहेली के पेरेंट्स का फ़ोन/मोबाइल नम्बर नोट कर रखिये.

6 आख़िरी बात....सुनिश्चित कीजिये कि आपकी बेटी पार्टी ख़त्म होते ही सीधे घर आए...फ़ेण्ड के यहाँ रूक रही हूँ ..सुबह आ जाऊंगी न....यह सब बिल्कुल स्वीकार्य न हो.

आशा है आप मेरी बात को अन्यथा न लेंगे...मज़े से और सुरक्षित मने नया साल !
शुभकामनाएँ...आप तमाम ख़ुशियों से हों मालामाल.

Thursday, December 24, 2009

बच्चों की परीक्षाओं की तैयारी भी देती है आनंद.


सर्दी ख़त्म होते-होते शादियों का मौसम भी ख़त्म हो जायेगा।बीतते साल की विदाई और नये साल के जश्न भी कुछ दिनों में थम ही जाएंग और एक नए मौसम की तैयारी शुरू हो जाएगी(वैसे तो मौसम चार ही होते हैं, लेकिन एक पाँचवा मौसम भी है जिसे व्यक्ति अपनी सोच से इंज्वाय करता है, जैसे प्यार का मौसम, चुनाव का मौसम, शादियों का मौसम) लेकिन किसी गृहिणी के लिये नज़दीक आ रहा बच्चों की परीक्षाओं का मौसम एक कठित परीक्षा से कम नहीं होता.निसन्देह यह मौसम अन्य मौसमों की बनिस्बत कुछ तनावपूर्ण होता है.लेकिन यह भी सच है कि इस तनाव को टाल कर बाक़ी मौसमों तरह ख़ुशगवार बनाया जा सकता है। इसके लिये कुछ पूर्व तैयारियाँ आवश्यक हैं । बच्चों को सबसे ज़्यादा हिदायतें भी मम्मियों की तरफ़ से ही मिलती है। जैसे सर्दी आने पर ऊनी कपड़ों की सार-सम्हाल शुरू हो जाती है। बारिश में रेनकोट, छतरी बाहर आ जाते हैं। गरमा-गरम पकोड़ों का आनंद लिया जाता है। वैसे ही आनंद हम परीक्षा के दिनों में भी ले सकते हैं।

-परीक्षा की तारीख़ तो निश्चित ही रहती है, वह कोई बिन बुलाया मेहमान तो नहीं कि अचानक आ जाता हो। बच्चें किसी भी उम्र के हों परीक्षा तो सबके लिए एक जैसी है। आप तो जहॉं तक संभव हो बाज़ार के कार्य, ग़ैर ज़रूरी काम इन दिनों न करें।
-मित्रों को पहले से ही सूचित कर दें कि इन दिनों आप फ़ोन पर गॉसिप नहीं कर पायेंगी। माहौल को हल्का-फ़ुल्का बना कर रखें।
-बच्चों के स्कूल कॉलेज से आने के पहले ही घर के कार्य समाप्त करने की हरसंभव कोशिश करें,ताकि बच्चों के साथ आप समय बिता सकें उनकी मदद कर सकें।

-बच्चों को समझाएं कि जैसे पढ़ाई ज़ितनी ज़रूरी है,शारीरिक व्यायाम,खेल और नींद भी उतनी ही ज़रूरी है.

-छोटे बच्चें हों तो उनके लिए विषय से संबंधित तारानुमा कार्ड तैयार करें। उन पर व्याकरण, फ़ार्मूले आदि लिखे जा सकते हैं। खेल-खेल में रिविज़न हो सकता है।

-बच्चों को संतुलित आहार देने की चेष्टा करें.बदलाव के तौर पर ऐसी चीज़ें बनाकर दें जिनसे पेट भी भरता हो लेकिन जो ज़्यादा गरिष्ठ भी न होतीं हों.बच्चों को इन दिनों में जंक फ़ूड या बाहर के खाने से दूर रखें.गर्मियाँ आते ही बच्चों को फ़लों की रस,ठंडाई और लस्सी जैसी चीज़ों का सेवन करवाएं.

-यदि किसी वजह से बच्चे की तैयारी में कोई कमी रह गई है तो उसके दोस्त बनकर उसे समाधान देने की चेष्टा करें.यदि उसकी ट्यूटर के यहाँ जाने और किसी मित्र से बातचीत करने से कोई रास्ता निकल सकता है तो ज़रूर निकालें.कोशिश करें कि अपने बच्चे की तैयारी के बारे में उसके निकट मित्रों से भी चर्चा करते रहें उनके फ़ोन/मोबाइल नम्बर्स आपके पास पहले से नोट करके रखें.

-पतिदेव को कहें कि इम्तेहान की तैयारी के दिनों में ज़्यादा से ज़्यादा समय परिवार के साथ बिताने की चेष्टा करें. घर में इन दिनों में टीवी/मोबाइल/फ़ोन का कम से कम उपयोग करें.पति-पत्नी दोनों मिलकर इन दिनों सामाजिक प्रसंगों और पार्टीज़ को टालें.

-बच्चों को यह अवश्य समझाएँ कि परिणाम से महत्वपूर्ण प्रयास है ईमानदारी के साथ की गई मेहनत का सफल होती है और मेहनत का फ़ल हमेशा ही मीठा होता है। कहीं पढ़ा है "सफलता से ज़्यादा मायने इस बात के हैं कि आप असफल होने पर भी हार नहीं मानते हैं और सफल होने की कोशिश में पुनः लग जाते हैं।

और आख़िर में एक ख़ास बात....बच्चा अच्छा परिणाम तब ही देता है जब वह साल भर पढ़ाई करता हो. ऐन इम्तेहानों के वक़्त पढ़ाई करने से पास तो हुआ जा सकता है श्रेष्ठता हासिल नहीं की जा सकती. लेकिन अब तो आपके पास समय शेष नहीं होता है . अत: नाहक तनाव निर्मित न होने दें और सीमित समय में बच्चा बिना अतिरिक्त तनाव लिये जो भी श्रेष्ठ कर सकता हो उसका प्रयास करें . उसके मित्र बनें,मनोबल बढ़ाएं,उसे हँसाएं और देखें कि आप भी इस काम का आनंद ले रहीं हैं ..और आपका प्यारा बेटा/बेटी भी.

Monday, December 14, 2009

कोई लम्हा कई सदियों को निगल जाता है.

ज़िन्दगी से पलायन बेमानी है. आज ही मेरे शहर के एक परिवार से बुरी ख़बर आई. नौजवान लड़की ने न जाने किस कारण से आत्महत्या कर इस नश्वर संसार से विदा ले ली. छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर वह कहीं दूर चली गई. शोक बैठक में यदि सबसे ज़्यादा संतप्त दीख रही थी तो उस लड़की की माँ,जो एक कुर्सी पर निढाल से शून्य में देखे जा रही थी. छोटे बच्चे जिनकी परवरिश और पढ़ाई अब नानी के ज़िम्मे आ गई है, वह यह सोच कर दुबरी हुए जा रही है कि इन प्यारे बच्चों को अब एक नई चुनौती के साथ दुनिया का सामना करना सिखाना है. उनकी आँखों से साफ़ दीख रहा था कि जिस बेटी को विदा कर वे लगभग चैन की स्थिति में थीं अब वह चैन दूर भाग गया है. पहले तो अपने आप को इस दु:ख से दूर करने का साज़ो-सामान जुटाओ और बाद में ज़िन्दगी की एक नई पारी की शुरूआत.

मैं ख़ुद एक माँ हूँ,बेटी भी हूँ और पत्नी भी.महसूस करती हूँ कि जीवन के इस महासंग्राम में ऐसे कई मोड़ हैं जब मन अवसाद,उत्तेजना और तनाव से भर जाता है. लगता है सब निरर्थक है. अपनी बात को कोई तवज्जो नहीं दे रहा है. सब अपनी अपनी हाँके जा रहे हैं लेकिन ऐसे में मुझे भी अपने पिता और माँ की नसीहतें याद हो आतीं हैं जिनमें संयम से जीवन को देखने की बात प्रमुखता से कही जाती थी. मैं यह भी महसूस करती हूँ कि हर दम्पत्ति को अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं ही तलाशना पड़ता है क्योंकि अलग अलग परिवेश,संस्कार,बोल-व्यवहार और संवाद के मद्देनज़र सबकी समस्याएं भी अलग अलग होतीं हैं और समाधान भी. कोई शास्त्र या नियम ऐसा नहीं जिसका अनुसरण कर अपनी परेशानी को सुलझाया जा सके. एक नारी होने के नाते मैं अपने आप में सबसे बड़ी शक्ति महसूस करती हूँ ...सब्र...मेरा मानना है कि सब्र,धीरज,धैर्य हर एक मुश्किल को आसान कर सकता है. एक घड़ी होती है तनाव की,बस उसे टालना भर पड़ता है. यह समझाना पड़ता है कि आपका जीवन साथी या परिजन इस समय विशेष में अपनी बात मनवाना चाहता है...तो उसे अपने मन की कर लेने दीजिये..उसमें टकराहट, अहंकार या अपमान को इरादतन टालिये...आप महसूस करेंगी कि समय बीत जाने के बाद आपके मन की होने वाली है.

किसी भी नापाक़ घड़ी मे लिया गया एक भावुक निर्णय कितना तकलीफ़देह होता है यह आज मैं उन परिजनों के चेहरे पर पढ़ रही थी जिन्होंने अपनी बेटी को खोया. उस लड़की को जिसे उसके माता-पिता ने बड़े नाज़ों से पाला,सुशिक्षित किया और संसार बसाया ; ऐसे कैसे एक बड़ा निर्णय ले सकती है. मैं मानती हूँ कि आत्महत्या अवसाद की कम और ज़िद की परिणिति ज़्यादा है. नारी को शक्ति के साथ करूणा का पर्याय भी माना गया है . किसी भी निर्णय को लेने के पहले उसका आगापीछा ज़रूर देखा जाना चाहिये और यह भी देखा जाना चाहिये कि अपने बाद अपने पति,परिजनों और बच्चों पर इस निर्णय का क्या असर होने वाला है. एक तात्कालिये निर्णय के बाद के दूरगामी परिणामों पर ध्यान दिया जाना चाहिये. सबसे बड़ी बाद किसी भी अवसाद तनाव की स्थिति गहन हो उसके पहले अपने अभिभावकों,मित्रों,पति के मित्रों से बातचीत बहुत सारी समस्याओं का निराकरण कर सकती है. मैंने शोक-बैठक में किसी को यह भी कहते सुना कि उसका तो समय आ गया था ...लगा कितनी बेकार बात की जा रही है. यह जाना भी कोई जाना है...यह निरा पलायन या अपनी ज़िम्मेदारी से भागना कहा जाएगा....अभी हाल में ही प्रकाशित हुई ख्यात शायर राजेश रेड्डी की नई किताब की एक ग़ज़ल का शेर याद आ गया....

यूँ तो लम्हों को निगल जाती है सदियाँ लेकिन
कोई लम्हा कई सदियों को निगल जाता है

Friday, December 4, 2009

धरती का सुहाग बना रहे !

इंतज़ार रहता है
उसे सावन का
महीनों राह तकती है वह
बिजली कड़कने की
बादल के गरजने की
ख़ुद प्यासी रह कर
सबकी प्यास बुझाती है
बदरंग सी
मैली चादर को
हरी भरी चुनर में बदलने का
इंतज़ार रहता है उसे

मुआ सावन है कि
आँख मिचौनी करता है
तरसाता है,
जब आता है तो उसका
अंग -अंग मुस्काता है
नदियों की कलकल उसमें
मादकता भर जाती है
सावन की बुँदे
माथे पर
बिंदिया लगा
सिंगार कर जाती है
उसे विधवा होने से बचा लो
पेड लगाकर प्रकृति
पृथ्वी को सुहागन बनी रहने दो.

Thursday, November 26, 2009

दुनिया की सारी ख़राबियाँ ज़ुबान के नीचे पोशीदा हैं


आज भाषा को लेकर जो तनातनी हो रही है, उस पर कुछ चिंतन करें तो लगता है कि हम कहाँ जा रहे हैं ? प्रकृति का सबसे अनमोल उपहार;भावनाओं को व्यक्त करने की विधा ''बोलना '' सिर्फ मानव प्रजाति को ही मिला है.अलग -अलग जगह के लोगों ने इसे अपनी सुविधानुसार विकसित किया है ऐसा करने में न जाने कितने वर्ष लगे होंगे .भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है न की अस्मिता का सवाल. भाषा पर गर्व होना अच्छी बात है मुझे लगता है कि हमें भाषा से ज़्यादा अपनी वाणी पर ध्यान देना चाहिए ,उसे प्रचारित करना चाहिए.वाणी की मिठास ही नफरत के झंझावात को प्यार और भाईचारे की ठंडी बयार में बदल सकती है .”ऐसी बानी बोलिए”... यह मुहावरा -पूरा लिखने की ज़रुरत नहीं है भारत-माता बोलते ही जय की ध्वनि स्वतः निकल जाती है वैसे ही कुछ दोहे ,लोकोक्ति अपने आप ही याद आ जाते है. आज हम हर जगह थैंक यू,प्लीज़ और ,सॉरी कहकर अपना आभार ,भावनाएं ,अफ़सोस आसानी से ज़ाहिर कर देते हैं . मेरा मानना है की भाषा कोई भी हो वाणी एवं लहजा सही होना चाहिए .

एक पारिवारिक मित्र की डायरी में लिखा पढ़ा था कि दुनिया की सारी ख़राबियाँ ज़ुबान के नीचे पोशीदा(दबी या छुपी हुई) हैं.वाणी मनुष्यता का सबसे अहम शस्त्र है, सांत्वना देने,हौसला बढ़ाने,सौजन्य प्रकट करने ,किसी को धन्यवाद देने और किसी के लिए प्रार्थना करने जैसे शुभ कार्यों में वाणी का उपयोग हो तो कितना सार्थक हो . भाषा के साथ भगवान ने हमें विवेक भी दिया है...इन दोनों का संजोग हो जाए तो वाणी अपनी मधुरता को पा लेती है. आइये आज से ही पहल करें...



चलो अल-सुबह घूम आएँ
ताज़ी हवा को हम हैं;ये बताया करें
जो मुफ़्त में मिले गुनगुनी धुप तो
क्यों इसे ज़ाया करें

राह में कोई मिले दर्द से परेशाँ ,
तो क्यों न बाँट लें उसका ग़म
क्या पता कल मौक़ा मिले न मिले
ख़ुद दर्द से परेशाँ हों हम

इबारत रचें कुछ ऐसी
कि जगत में फ़ैले मुस्कान
वाणी से साबित करें हम
मनुष है महान.

Saturday, November 21, 2009

कहाँ खो गया रिश्तों को मिठास देने वाला वह नमक !

बदलती दुनिया हाईटेक होती जा रही है. इसका असर रिश्तों पर भी नज़र आ रहा है. अपनेपन,आत्मीयता,ख़ुलूस और सौजन्य के सिलसिले ख़ारिज से होते जा रहे हैं.पडौस नाम की संस्था किताबी सी हो गई है. इसमे वह बेतक़ल्लुफ़ी गुम हो जा रही है. रिश्तों को जीवंत रखने वाला नमक यानी अपनापन अब बीते कल की बात लग रहा है. बिना पूर्व सूचना के किसी के घर जाना अब आउट ऑफ़ मैनर्स माना जा रहा है.दौड़ कर किसी के घर जाकर यह कहने वाला स्वर “भौजाईजी ज़रा एक कटोरी शकर दे देना तो”अब सुनाई नहीं दे रहा. ये अनौपचारिक लेनदेन न सिर्फ़ रिश्तों की मिठास का आधार होता था बल्कि एक कटोरी के इस लेनदेन में दीन-दुनिया के न जाने कितने दु:ख –दर्द साझा हो जाया करते थे.

शरारत' सीरियल का एक पात्र "शांतिजी' (शोभा सरनेम याद नहीं) वह हमेशा एक बर्तन लेकर ही नायिका के घर में प्रवेश करती है और शक्कर मॉंगती है। आने के बाद वे घर की घटनाओं में शामिल हो जाती है, ऐसा नहीं है कि आजकल "यह' नमक या शक्कर या जामन नहीं मिलताहै, बहुमंजिला इमारतों बंगलों को छोड़कर यह तो किसी चाल (ग्वाड़ी) छोटी सी कॉलोनी जहॉं एक दूसरे से सटे हुए मकान बने हुए हैं आज भी आसानी से मिलता है। कई जगह तो पीछे की तरफ़ एक खिड़की भी बनाई जाती है ताकि ज़रूरत पढ़ने पर सामान आसानी से ले या दे सकें। यह बात अलग है कि आजकल "मणिबैन डॉट कॉम' जैसे सीरियल्स की ज़रूरत पड़ रही है वरना सच्चाई तो "लापतागंज' ही है।

संकोच, ईगो यह सब हमारी भौतिक सुख-सुविधाओं की वजह से बढ़ता जा रहा है। गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर होते हुए भी अचानक आन पढ़ने वाली ज़रूरत/कमी/ग़लती छोटे लोगों की बराबरी में लाकर खड़ा कर देती है। इसी खाई को पाटने में अच्छे लोग लगे रहते हैं और बढ़ाने में ऐसे लोग जो कि किसी ग़रीब की मदद करने में भी फ़ोटो खिंचवाते नज़र आते हैं।

मिल-बॉंट कर जीने वाले लवण की पूर्ति, हमारी कमज़ोरियों, मर्यादा को ढकने वाले लवण की पूर्ति आज पैसे के द्वारा की जा रही है, परंतु हमदर्दी, दूसरों के दुःख में खुद भी सुध-बुध खोकर उसके दुःख को मिटाना, किसी की ख़ुशी में स्वयं भी दिवाली मनाना, यह सब पैसे से मिलता तो आज दुनिया स्वर्ग होगी।