Thursday, August 18, 2011

बामुलाहिज़ा होशियार ! बदलाव की बयार आ पहुँची है



हम सोचते हैं कि बदलाव होना चाहिए ,बदलाव लाना होगा प्रश्न ये है कि कौन करेगा ये बदलाव ? कैसे संभव होगा बदलाव ? समाज और जीवन में एक मोड़ ऐसा भी आता है जब हम स्वयं को दोराहे पर खड़ा पाते हैं ....तय नहीं कर पाते कि हम जो रास्ता चुन रहे हैं वह सही है या हम परम्पराओं की जिन ज़जीरों को तोड़ कर आगे जा रहे हैं वे सही हैं.बदलाव का उद्देश्य और नेतृत्व सत्य एवं निर्दोष हो तो हम स्वयं ही समर्थन करने को अग्रसर हो जाते हैं ;यह एक स्फ़ूर्त प्रतिक्रिया आने लगती है और मानस उस उद्देश्य के साथ एकाकार हो जाता है.हम उस परिवर्तन का हिस्सा बनने को लालायित हो उठते हैं जो नव सृजन करे सके. एक ताज़ा बयार ला सके.कुछ बिरले इंसान स्वयं के बलबूते पर परिवर्तन ले आते हैं बाक़ी तो हम-आप जैसे सामान्यजन , उन महापुरुषों के आव्हान का अनुसरण स्वत: करने लग जाते हैं.

वर्तमान में जो उथल-पुथल और जनक्रांति की लहर पूरे देश को भिगो रही है उससे मैं भी न बच सकी.मानव श्रंखला का हिस्सा बनने के लिए मित्रों के आग्रह पर मैं भी शहर के प्रमुख चौराहे पर जा पहुँची .श्री अन्ना हजारे ने लोकपाल पल बिल लागू करने की मांग पूरी करवाने के लिये जो गांधीवादी रास्ता अपनाया है,उसके समर्थन में पूरा देश आगे आया है .मेरे शहर में रीगल चौराहे पर रैली ,मानव श्रंखला आदि बनाकर अपना मत सरकार तक पहुँचाया जा रहा है. मानव श्रंखला में महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम थी .टीवी ,फ़ेसबुक पर दिन भर क्लिपिंग और स्टेटस देखते हुए मन में एक जोश सा भर गया . हमारे मित्रजन एक स्वर में महसूस कर रहे थे कि अगर हम अन्ना से सहमत हैं तो हमें अपना मत प्रकट करना ही चाहिये और उसी जोश -जोश में मैं शहर के ह्रदय-स्थल पर पहुँच गई.

वहाँ पहुँचते ही महसूस हुआ कि पूरे देश में फ़ैली इस लहर के मामले में हमारी माता-बहनें थोड़ी सी सशंकित हैं.ऐसा लगा जैसे वे सोच रहीं हैं कि हमें तो लोग देख रहे हैं ! देखो भले घर कि महिलाऐं सड़क पर आ गई है ! ....कोई देखेगा तो क्या कहेगा ! ....अगर कहीं फोटो छप गया तो नाते रिश्तेदार कहेंगे देखो बड़ी चली अन्ना की चेली बनने ! इसी कशमकश के साथ आयोजन स्थल पर २० -२५ मिनट रुक कर हम घर आ गए , मित्रों को भी यही चिंता खाए जा रही थी कि ,कहीं हमने ग़लत तो नहीं किया ! कहीं हम अपने परिवार की इमेज को क्षति तो नहीं पहुँचा रहे हैं ? घर आते आते ही स्थानीय टीवी चैनल पर वही मानव श्रंखला पुन: नज़र आने लगी जिसे हम बीच से तोड़ कर निकल आए थे और देख कर यह सुखद अनुभूति हुई कि जहाँ से हम निकले थे वहाँ कुछ और महिलाएं एवं युवा लडकियाँ पूरे जोश से आकर जुड़ गईं थीं .उनकी आँखों में एक अदभुत विश्वास दिखा जो यह कह रहा था कि हम भी इस बदलाव का हिस्सा बनना चाहतीं हैं. इसीलिए इस कड़ी को पुन:जोड़ दिया है ...अच्छा लगा कि सच में बदलाव आ रहा है.यह इत्मीनान भी मिला कि चलो हम भी लोकपाल के शंख में अपना स्वर मिला आए…हालाँकि सच कहूँ…मंज़िल अभी बहुत दूर है.

जी चाहता है कि एक मशहूर मुक्तक आपसे साझा करते हुए अपनी बात को विराम दूँ:

मैं चाहती हूँ निज़ामे-कोहन बदल डालूँ
मगर ये बात अकेले के बस की बात नहीं
उट्ठो बढ़ो मेरी दुनिया के आम इंसानों
ये सबकी बात है दो चार दस ली बात नहीं.


(निज़ामे-कोहन:व्यवस्थाओं का वातावरण)