Tuesday, January 5, 2010

झील का स्वच्छ जल-एक बोध कथा



एक बार गौतम बुद्ध अपने कुछ शिष्यों के साथ एक गॉंव से दूसरे गॉंव जा रहे थे। बीच सफ़र में उनके मार्ग में एक झील पड़ी। बुद्ध ने अपने एक अनुयायी को कहा कि उन्हें बड़ी प्यास लगी है और वो झील से पानी ले आए।

शिष्य चल कर झील तक पहुँचा। तभी उसने देखा कि एक बैलगाड़ी झील पार कर रही थी जिसके कारण झील का पानी बहुत मैला एवं कीचड़युक्त दिखाई पड़ रहा था। शिष्य ने विचार किया कि ऐसा पानी लेकर वो बुद्ध के पीने के लिए कैसे लेकर जा सकता था ? वो पलट कर बुद्ध के पास आ गया और उनसे कहा, "भगवन, झील का पानी कीचड़ वाला है और आपके सेवन योग्य नहीं है।' विश्राम करते-करते कुछ समय और बीता तथा एक बार पुनः बुद्ध ने उसी शिष्य को पानी के लिए भेजा। शिष्य आज्ञा का पालन करते हुए झील तक गया और उसे सुखद आश्चर्य हुआ, यह देखकर कि झील का पानी एकदम साफ़-स्वच्छ था। कीचड़ झील की सतह में बैठ चुका था तथा पानी पीने योग्य था। उसने अपने पात्र में जल भरा और बुद्ध के पास पहुँच गया।

बुद्ध ने पहले पात्र के जल की ओर देखा, उसके पश्चात् दृष्टि उठाकर शिष्य की ओर देखने लगे। उन्होंने कहा, "तुमने देखा कि क्या हुआ? तुमने उस पानी को वैसे ही छोड़ दिया, तो कीचड़ धीरे-धीरे बैठ गया और तुम्हें साफ़ पानी प्राप्त हुआ। हमारा मस्तिष्क भी ऐसा ही कुछ है। जब भी वो अशांत हो या उसमें अधिक उथल-पुथल हो तो उसे वैसा ही छोड़ दो। उसे थोड़ा व़क़्त दो। तुम देखोगे कि कुछ समय बाद वो स्वतः ही स्थिर हो जाएगा। मन को शांत करने के लिए अपनी ओर से अतिरिक्त प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं।' यह ग़ौरतलब है कि "मन की शांति' पानी कोई कठिन कार्य नहीं है। यह तो एक स्वाभाविक, सहज रूप से होने वाली प्रक्रिया है।

बुद्ध ने आगे कहा, "यह भी सदैव याद रखो कि तुम बहुत ही सुरम्य और शांत वातावरण में रहते हुए भी यह महसूस कर सकते हो कि तुम्हारा अन्तर्मन बहुत अशांत है। ऐसी स्थिति में वातावरण की सुन्दरता तुम्हारे किसी काम की नहीं। वहॉं तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। तुम्हें मन से शांत रहना है तो शांति को अपने अन्दर की गहराई में उतारना होगा। उसे तुम्हें तुम्हारे अस्तित्व से मन तक और मन से बाहरी परिवेश में लाना होगा। जब शांति अपने अन्दर होती है तो वह बाहर भी प्रस्फुटित होने लगती है। वह तुम्हारे चारों ओर फैल जाती है और संपूर्ण वातावरण को शांतिमय बना देती है। उसका असर दूर-दूर तक देखा जा सकता है। अतः मन जैसा है उसे वैसा ही रहने दो, धीरे-धीरे वो स्थिर हो जाएगा और तुम्हें एक सुखद अनुभूति से भर देगा।'

2 comments:

  1. बहुत ही उम्दा बोध कथा है. बहुत आभार!!


    ’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

    -त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

    नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

    कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

    -सादर,
    समीर लाल ’समीर’

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  2. ye neeti kathayen jeene ki sahi raah dikhati hai.sadhuvad

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