Wednesday, February 3, 2010

एक मैथिली लोककथा - पत्थर है

ब्याह के बाद पहली बार बहू को लेकर सास चली मंदिर पूजा करने ।
आगे-आगे सास, पीछे-पीछे बहू। तन में हुलास, मन में उलास,
जैसे अपने चूज़े को उड़ना सिखाने चली हो च़िडिया।
प्रवेश द्वार पर दोनों और दो-दो भयंकर प्रतिमाएँ, बड़े-बड़े हाथी,
एक पॉंव यूँ उठाए हुए, मानो कुचलकर रख देंगे।
भय से ठमक गई बहू।
सास ने पीछे मुड़कर देखा, "क्या हुआ, रुक क्यों गई?'
बहू ने डरते-डरते दिखाया, "कुचल देंगे,' "ये...? सास ने अपने हाथों से प्रतिमा के पॉंवों को छू-छूकर दिखाया, "कुछ कर पाये? नहीं न? अरे ये बेचारे क्या कर सकते हैं ? पत्थर हैं।'
दोनों फिर आगे बढ़ीं।
सिंह द्वार पर दोनों ओर दो-दो भयंकर प्रतिमाएँ, बड़े-बड़े सिंह, जबड़े यूँ खुले हुए मानो चबा जाएँगे।
सास ने पीछे मुड़कर देखा, "अब क्या हुआ ? रुक क्यों गई ?'
बहू ने डरते-डरते दिखाया, "खा जाएँगे।'
"ये...? सास ने अपने हाथों से प्रतिमा के खुले जबड़े और नुकीले दॉंत को छू-छूकर दिखाया, "कुछ कर पाये ? नहीं न ! अरे ये बेचारे क्या कर सकते हैं ! पत्थर हैं।'
वे फिर आगे बढ़ीं।
अब वे प्रतिमा के सामने थीं। सास ने पूजा शुरू करनी चाही लेकिन बहू कहॉं थी ?
पीछे मुड़कर देखा, बहू काठ की तरह फिर ठमक गई थी।
अब क्या हुआ ?' सास ने पूछा, पूजा नहीं करेगी ?'
बहू का जवाब था….पत्थर है

2 comments:

  1. saas bahu ki kahani
    magar thoda alag hat kar

    aak ki bahu itni chalak kahan..
    jo saas ki har uttar se kuchh sikhe
    kahani wali bahu to kamal ki bahu hay..

    achchhi kahani

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