Monday, December 14, 2009

कोई लम्हा कई सदियों को निगल जाता है.

ज़िन्दगी से पलायन बेमानी है. आज ही मेरे शहर के एक परिवार से बुरी ख़बर आई. नौजवान लड़की ने न जाने किस कारण से आत्महत्या कर इस नश्वर संसार से विदा ले ली. छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर वह कहीं दूर चली गई. शोक बैठक में यदि सबसे ज़्यादा संतप्त दीख रही थी तो उस लड़की की माँ,जो एक कुर्सी पर निढाल से शून्य में देखे जा रही थी. छोटे बच्चे जिनकी परवरिश और पढ़ाई अब नानी के ज़िम्मे आ गई है, वह यह सोच कर दुबरी हुए जा रही है कि इन प्यारे बच्चों को अब एक नई चुनौती के साथ दुनिया का सामना करना सिखाना है. उनकी आँखों से साफ़ दीख रहा था कि जिस बेटी को विदा कर वे लगभग चैन की स्थिति में थीं अब वह चैन दूर भाग गया है. पहले तो अपने आप को इस दु:ख से दूर करने का साज़ो-सामान जुटाओ और बाद में ज़िन्दगी की एक नई पारी की शुरूआत.

मैं ख़ुद एक माँ हूँ,बेटी भी हूँ और पत्नी भी.महसूस करती हूँ कि जीवन के इस महासंग्राम में ऐसे कई मोड़ हैं जब मन अवसाद,उत्तेजना और तनाव से भर जाता है. लगता है सब निरर्थक है. अपनी बात को कोई तवज्जो नहीं दे रहा है. सब अपनी अपनी हाँके जा रहे हैं लेकिन ऐसे में मुझे भी अपने पिता और माँ की नसीहतें याद हो आतीं हैं जिनमें संयम से जीवन को देखने की बात प्रमुखता से कही जाती थी. मैं यह भी महसूस करती हूँ कि हर दम्पत्ति को अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं ही तलाशना पड़ता है क्योंकि अलग अलग परिवेश,संस्कार,बोल-व्यवहार और संवाद के मद्देनज़र सबकी समस्याएं भी अलग अलग होतीं हैं और समाधान भी. कोई शास्त्र या नियम ऐसा नहीं जिसका अनुसरण कर अपनी परेशानी को सुलझाया जा सके. एक नारी होने के नाते मैं अपने आप में सबसे बड़ी शक्ति महसूस करती हूँ ...सब्र...मेरा मानना है कि सब्र,धीरज,धैर्य हर एक मुश्किल को आसान कर सकता है. एक घड़ी होती है तनाव की,बस उसे टालना भर पड़ता है. यह समझाना पड़ता है कि आपका जीवन साथी या परिजन इस समय विशेष में अपनी बात मनवाना चाहता है...तो उसे अपने मन की कर लेने दीजिये..उसमें टकराहट, अहंकार या अपमान को इरादतन टालिये...आप महसूस करेंगी कि समय बीत जाने के बाद आपके मन की होने वाली है.

किसी भी नापाक़ घड़ी मे लिया गया एक भावुक निर्णय कितना तकलीफ़देह होता है यह आज मैं उन परिजनों के चेहरे पर पढ़ रही थी जिन्होंने अपनी बेटी को खोया. उस लड़की को जिसे उसके माता-पिता ने बड़े नाज़ों से पाला,सुशिक्षित किया और संसार बसाया ; ऐसे कैसे एक बड़ा निर्णय ले सकती है. मैं मानती हूँ कि आत्महत्या अवसाद की कम और ज़िद की परिणिति ज़्यादा है. नारी को शक्ति के साथ करूणा का पर्याय भी माना गया है . किसी भी निर्णय को लेने के पहले उसका आगापीछा ज़रूर देखा जाना चाहिये और यह भी देखा जाना चाहिये कि अपने बाद अपने पति,परिजनों और बच्चों पर इस निर्णय का क्या असर होने वाला है. एक तात्कालिये निर्णय के बाद के दूरगामी परिणामों पर ध्यान दिया जाना चाहिये. सबसे बड़ी बाद किसी भी अवसाद तनाव की स्थिति गहन हो उसके पहले अपने अभिभावकों,मित्रों,पति के मित्रों से बातचीत बहुत सारी समस्याओं का निराकरण कर सकती है. मैंने शोक-बैठक में किसी को यह भी कहते सुना कि उसका तो समय आ गया था ...लगा कितनी बेकार बात की जा रही है. यह जाना भी कोई जाना है...यह निरा पलायन या अपनी ज़िम्मेदारी से भागना कहा जाएगा....अभी हाल में ही प्रकाशित हुई ख्यात शायर राजेश रेड्डी की नई किताब की एक ग़ज़ल का शेर याद आ गया....

यूँ तो लम्हों को निगल जाती है सदियाँ लेकिन
कोई लम्हा कई सदियों को निगल जाता है

2 comments:

  1. सही बात है आज ही ऐसी किसी जगह से अभी अभी लौटी हूँ। बस मन यही सब सोच रहा है धन्यवाद्

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  2. निधिजी
    कोई लम्हा जिन्दगी को निगल जाता है !
    सही है !
    पर जिंदगी में ऐसे कई लम्हे है जिनकी याद में जीवन निकल जाता है !
    सुख दुःख सिक्के के दो पहालू है एक में ख़ुशी तो एक में गम क्यों ?
    जीवन खुश होकर जिए हादसों से तो संसार भरा हुआ है !

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