Thursday, November 26, 2009

दुनिया की सारी ख़राबियाँ ज़ुबान के नीचे पोशीदा हैं


आज भाषा को लेकर जो तनातनी हो रही है, उस पर कुछ चिंतन करें तो लगता है कि हम कहाँ जा रहे हैं ? प्रकृति का सबसे अनमोल उपहार;भावनाओं को व्यक्त करने की विधा ''बोलना '' सिर्फ मानव प्रजाति को ही मिला है.अलग -अलग जगह के लोगों ने इसे अपनी सुविधानुसार विकसित किया है ऐसा करने में न जाने कितने वर्ष लगे होंगे .भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है न की अस्मिता का सवाल. भाषा पर गर्व होना अच्छी बात है मुझे लगता है कि हमें भाषा से ज़्यादा अपनी वाणी पर ध्यान देना चाहिए ,उसे प्रचारित करना चाहिए.वाणी की मिठास ही नफरत के झंझावात को प्यार और भाईचारे की ठंडी बयार में बदल सकती है .”ऐसी बानी बोलिए”... यह मुहावरा -पूरा लिखने की ज़रुरत नहीं है भारत-माता बोलते ही जय की ध्वनि स्वतः निकल जाती है वैसे ही कुछ दोहे ,लोकोक्ति अपने आप ही याद आ जाते है. आज हम हर जगह थैंक यू,प्लीज़ और ,सॉरी कहकर अपना आभार ,भावनाएं ,अफ़सोस आसानी से ज़ाहिर कर देते हैं . मेरा मानना है की भाषा कोई भी हो वाणी एवं लहजा सही होना चाहिए .

एक पारिवारिक मित्र की डायरी में लिखा पढ़ा था कि दुनिया की सारी ख़राबियाँ ज़ुबान के नीचे पोशीदा(दबी या छुपी हुई) हैं.वाणी मनुष्यता का सबसे अहम शस्त्र है, सांत्वना देने,हौसला बढ़ाने,सौजन्य प्रकट करने ,किसी को धन्यवाद देने और किसी के लिए प्रार्थना करने जैसे शुभ कार्यों में वाणी का उपयोग हो तो कितना सार्थक हो . भाषा के साथ भगवान ने हमें विवेक भी दिया है...इन दोनों का संजोग हो जाए तो वाणी अपनी मधुरता को पा लेती है. आइये आज से ही पहल करें...



चलो अल-सुबह घूम आएँ
ताज़ी हवा को हम हैं;ये बताया करें
जो मुफ़्त में मिले गुनगुनी धुप तो
क्यों इसे ज़ाया करें

राह में कोई मिले दर्द से परेशाँ ,
तो क्यों न बाँट लें उसका ग़म
क्या पता कल मौक़ा मिले न मिले
ख़ुद दर्द से परेशाँ हों हम

इबारत रचें कुछ ऐसी
कि जगत में फ़ैले मुस्कान
वाणी से साबित करें हम
मनुष है महान.

Saturday, November 21, 2009

कहाँ खो गया रिश्तों को मिठास देने वाला वह नमक !

बदलती दुनिया हाईटेक होती जा रही है. इसका असर रिश्तों पर भी नज़र आ रहा है. अपनेपन,आत्मीयता,ख़ुलूस और सौजन्य के सिलसिले ख़ारिज से होते जा रहे हैं.पडौस नाम की संस्था किताबी सी हो गई है. इसमे वह बेतक़ल्लुफ़ी गुम हो जा रही है. रिश्तों को जीवंत रखने वाला नमक यानी अपनापन अब बीते कल की बात लग रहा है. बिना पूर्व सूचना के किसी के घर जाना अब आउट ऑफ़ मैनर्स माना जा रहा है.दौड़ कर किसी के घर जाकर यह कहने वाला स्वर “भौजाईजी ज़रा एक कटोरी शकर दे देना तो”अब सुनाई नहीं दे रहा. ये अनौपचारिक लेनदेन न सिर्फ़ रिश्तों की मिठास का आधार होता था बल्कि एक कटोरी के इस लेनदेन में दीन-दुनिया के न जाने कितने दु:ख –दर्द साझा हो जाया करते थे.

शरारत' सीरियल का एक पात्र "शांतिजी' (शोभा सरनेम याद नहीं) वह हमेशा एक बर्तन लेकर ही नायिका के घर में प्रवेश करती है और शक्कर मॉंगती है। आने के बाद वे घर की घटनाओं में शामिल हो जाती है, ऐसा नहीं है कि आजकल "यह' नमक या शक्कर या जामन नहीं मिलताहै, बहुमंजिला इमारतों बंगलों को छोड़कर यह तो किसी चाल (ग्वाड़ी) छोटी सी कॉलोनी जहॉं एक दूसरे से सटे हुए मकान बने हुए हैं आज भी आसानी से मिलता है। कई जगह तो पीछे की तरफ़ एक खिड़की भी बनाई जाती है ताकि ज़रूरत पढ़ने पर सामान आसानी से ले या दे सकें। यह बात अलग है कि आजकल "मणिबैन डॉट कॉम' जैसे सीरियल्स की ज़रूरत पड़ रही है वरना सच्चाई तो "लापतागंज' ही है।

संकोच, ईगो यह सब हमारी भौतिक सुख-सुविधाओं की वजह से बढ़ता जा रहा है। गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर होते हुए भी अचानक आन पढ़ने वाली ज़रूरत/कमी/ग़लती छोटे लोगों की बराबरी में लाकर खड़ा कर देती है। इसी खाई को पाटने में अच्छे लोग लगे रहते हैं और बढ़ाने में ऐसे लोग जो कि किसी ग़रीब की मदद करने में भी फ़ोटो खिंचवाते नज़र आते हैं।

मिल-बॉंट कर जीने वाले लवण की पूर्ति, हमारी कमज़ोरियों, मर्यादा को ढकने वाले लवण की पूर्ति आज पैसे के द्वारा की जा रही है, परंतु हमदर्दी, दूसरों के दुःख में खुद भी सुध-बुध खोकर उसके दुःख को मिटाना, किसी की ख़ुशी में स्वयं भी दिवाली मनाना, यह सब पैसे से मिलता तो आज दुनिया स्वर्ग होगी।