पाश्चात्य संस्कृति का हिस्सा बन चुके हम आए दिन कोई न कोई ‘डे’ मनाते रहते है ।साल के दिनों की संख्या से ज्यादा तो तथाकथित ‘डे’ मनाएं जाते है ,ना इसमें कोई बुराई है वे लोगों को जीते जी याद करते है तो हम परिजनों के गुजर जानें के बाद भी उन्हें याद करते है ,उनकी याद में दिवस मनाते है भारतीय संस्कृति सबको साथ ले कर चलने वाली है .यहाँ ‘डे’ भी मनाएं जाते है तो विशेष रुप में मनाएं जाते है ,’डे’ क्या यहाँ पूरा सप्ताह ,माह , तिथी विशेष तो प्रत्येक मास मनाई जाती है ।श्रावण ,नवरात्री, रमज़ान, दिपावली ,श्राद्ध आदि सभी अपने मनाने के मुख्य कारण के साथ अन्य सहकारणों को भी (पर्यावरण ,परिवार,समुदाय,मूक प्राणी जगत ,राष्ट्र )समन्वित करके चलते है .
हम अगर श्राद्ध की बात करें तो इसमें न सिर्फ़ अपने पिता अपितु पितरों (हमारे दादा –परदादा ) के प्रति भी धार्मिक क्रियाओं के माध्यम से सम्मान प्रकट किया जाता है उन्हें याद किया जाता है ,उनका आभार माना जाता है.इन दिनों में सात्विकता ,पशु-आहार ,दान का विशेष मह्त्व है ।यहाँ मूलत: ’आत्मा अमर है’ का विश्वास काम करता है कि वें जहाँ कहीं भी हैं हमें देख रहें होगें । भारतीय संस्कृति की एक विशेषता उल्लेखनीय है कि वह अपने संस्कार से व्यक्ति को विनयवान बनाती है ।
जहाँ इसमें ‘धर्म-भीरुता’ एक कमजोर पक्ष बनकर उभरा है जिससे कई कुरीतियों ने भी जन्म लिया । वहीं क्षिक्षा के प्रसार से कुछ नवीनता भी आई है । दान का स्वरुप बदल कर ब्राह्मण भोज के स्थान पर लोगों ने ज़रूरतमंदों और अनाथालयों में अन्न सेवा प्रारंभ कर दिया है. कुछ समर्थ लोग दोनों ही तरह के दान के हामी होते है तो आधुनिक विधि-विधान को मह्त्व न देकर श्राद्ध में छिपे मूल भाव को मह्त्व देते हुए अपने पूर्वजों को याद करने के विभिन्न तरीके अपनाते है.पितरों की आशीर्वाद बना रहे ,पूर्वजों के प्रति आभार जताने का भाव मन में आ जाना, पूर्वजों के साथ घर में रह्ने वाले बुजुर्गों का भी आदर बना रहे यही सही मायने में श्राद्ध है जो कि आज के समय की मांग है।
श्राध्द पर्व की मूल अवधारणा श्रध्दा पर आधारित है. श्राध्द पर्व के पन्द्रह दिनों के दौरान यदि हम अपने विलग हो चुके बुज़ुर्गों को याद कर उनकी अच्छाइयों को अपने और अपनी अगली पीढ़ी के जीवन में कार्यान्वित कर सकें तो इस भाव-प्रसंग की सार्थकता कुछ और बढ़ जाए.
दिवंगतों के प्रति श्रद्धा भाव रखना ही श्राद्ध है ...
ReplyDeleteआपने ठीक कहा बदलते ज़माने के हिसाब से श्राध्द को देखने की ज़रूरत है. इस पर्व का सबसे महत्वपूर्ण है भावनात्मक इंसानी पहलू जो हमें हमारी विरासत का जज़बाती स्मरण करवाता है. इस सच को स्वीकारना पड़ेगा कि ये पर्व न आए तो हम वाक़ई अपने बाप-दादाओं को भूल ही जाएँ....सामयिक पोस्ट.
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