कैसा सुखद संयोग है ! आज के दिन दो दिव्य शक्ति की आरधना का ……नारी शक्ति रुप की पूजा का,साधना का,अर्चन का। आज ही नवरात्र का प्रथम दिवस और आज ही स्वर कोकिला “लता मंगेशकरजी” का जन्म दिन । वैसे तो ‘लताजी’ किसी परिचय से परे है संगीत अपनी पह्चान ‘लताजी’ के रूप में दे तो भी कम है । सारी उपमाएं,उपाधियाँ,सम्मान ‘लताजी’ को सम्मानित कर स्वयं सम्मानित होते हैं। अपने क्षेत्र में शिखर तक कैसे पहुँचा जा सकता है इसका जीवंत उदाहरण है लताजी ।
साधारण से साधारण इन्सान भी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए लताजी के गाए गीतों पर ही आश्रित रहता है मानव मन की भावनाओं,विचारों का प्रतिबिंब है लताजी का गायन । जीवन का ऐसा कोई पहलु नहीं होगा जिसे लताजी ने अपनें गीतों से न छुआ हो,कोई भी गीत देख लिजिये ,उसमें स्वरित शब्द ,धुन सुन कर हर शख्स यही कह उठेगा कि हाँ ‘यही तो मैं कहना चता था ,इसी सुकून की तो मुझे तलाश थी । इन सबसे उपर अपने ज्ञान का अभिमान न होना उनकी महानता की निशानी है ।
‘आशाजी’ उन्हें ‘न भूतो न भविष्यति’ तो बलराम जाखड जी उन्हें एक संस्था कहते है ‘फ़ालके पुरस्कार, भारत रत्न ,स्वर कोकिला, आदि अनगिनत पुरस्कार से सम्मान स्वयं सम्मानित हुए है । तो कोई कहता है कि ‘लता के सुरों के साम्राज्य का कभी अन्त नहीं होता,तो कभी उन्हें जीवित किवदंति कहा जाता है ऐसे मैं आम जनमानस की तरह मेरे जेहन में भी कई प्रश्न उठने लगे,जैसे नारी जो आधी मानवता का हिस्सा है उस नारी ने अपने समय में नारी के संघर्ष को कैसे जिया होगा?संसार में त्याग ,समर्पण, साधना की मुर्ति ‘लताजी’ क्या बचपन से ही एसी थी ? इन सवालों के जवाब ,लताजी के जीवन के बारे में जानने की उत्कंठा ने उनके बारे में लिखी किताबें खोलने को प्रेरित किया ।
संगीत की साम्राज्ञी कही जाने वाली लताजी का जीवन कठिन संघर्षों की कहानी रहा है ।मात्र तेरह वर्ष की आयु में जब बच्चें खिलोनों के साथ खेलते हैं ,माता –पिता से जिद करते हैं तब पिताजी का पूरे परिवार को लताजी के भरोसें छोड कर इस दुनिया को अलविदा कह देना...बाल मन ने कैसे अपने बचपन को विस्म्रुत कर परिवार की जिम्मेदारी को निभाया होगा ?
पिता द्वारा विरासत में मिले खजाने स्वर लिपि की किताब और एक तानपुरा को अपनाकर पार्श्वगायन के जरिये अपने परिवार की देखभाल की ,यही खजाना आज दुनिया को भी बाँट दिया । एक मराठी फ़िल्म ‘माझे बाल’ में अपने सभी भाई-बहनों के साथ एक द्र्श्य में शामिल होने के बारे में बताते हुए लताजी कहती है कि, ‘अगर उस फ़िल्म में हम नही आते तो वास्तविक जीवन में भी हम अनाथ रह जाते। इतनी ही पीड़ा ,ग़म, मार्मिकता जो उनके गीतों में रूह तक मह्सूस होती है उनके जीवन का सच नारी जीवन की संपूर्णता को उन्होनें नकार दिया,मन की वही तपस्या का तेज आज उनके मुखमंडल पर चमकता है,संघर्ष की साधना उनके स्वरों को रोशन करती है। चूँकि लताजी मेरे शहर इन्दौर में जन्मी हैं तो उन पर हम सबको कुछ ज़्यादा ही अभिमान है। वे हैं भी तो इसके क़ाबिल ....है न...बहुत सालों बाद शारदीय नवरात्र का पहला दिन इतना सुरीला लग रहा है।सृष्टि का सबसे मधुर स्वर जो जन्मा है इस दिन.
यदि आप चाहें तो लताजी के कुछ दुर्लभ गीत श्रोता-बिरादरी पर चल रहे लता स्वर उत्सव पर सुन सकते हैं.