इंतज़ार रहता है
उसे सावन का
महीनों राह तकती है वह
बिजली कड़कने की
बादल के गरजने की
ख़ुद प्यासी रह कर
सबकी प्यास बुझाती है
बदरंग सी
मैली चादर को
हरी भरी चुनर में बदलने का
इंतज़ार रहता है उसे
मुआ सावन है कि
आँख मिचौनी करता है
तरसाता है,
जब आता है तो उसका
अंग -अंग मुस्काता है
नदियों की कलकल उसमें
मादकता भर जाती है
सावन की बुँदे
माथे पर
बिंदिया लगा
सिंगार कर जाती है
उसे विधवा होने से बचा लो
पेड लगाकर प्रकृति
पृथ्वी को सुहागन बनी रहने दो.
पिता का न होना,जैसे घर में घर का न होगा !
12 years ago
बहुत ओरिजिनल बात कही है आपने.
ReplyDeleteपर्यावरण को लेकर हमारे यहाँ कविताएं कम ही कही जाती हैं.
क्या ही अच्छा हो कि आपके द्वारा लिखी गई कविताओं को समाचार पत्र अपने यहां नियमित स्थान देने लग जाएं.