Friday, December 4, 2009

धरती का सुहाग बना रहे !

इंतज़ार रहता है
उसे सावन का
महीनों राह तकती है वह
बिजली कड़कने की
बादल के गरजने की
ख़ुद प्यासी रह कर
सबकी प्यास बुझाती है
बदरंग सी
मैली चादर को
हरी भरी चुनर में बदलने का
इंतज़ार रहता है उसे

मुआ सावन है कि
आँख मिचौनी करता है
तरसाता है,
जब आता है तो उसका
अंग -अंग मुस्काता है
नदियों की कलकल उसमें
मादकता भर जाती है
सावन की बुँदे
माथे पर
बिंदिया लगा
सिंगार कर जाती है
उसे विधवा होने से बचा लो
पेड लगाकर प्रकृति
पृथ्वी को सुहागन बनी रहने दो.

1 comment:

  1. बहुत ओरिजिनल बात कही है आपने.
    पर्यावरण को लेकर हमारे यहाँ कविताएं कम ही कही जाती हैं.
    क्या ही अच्छा हो कि आपके द्वारा लिखी गई कविताओं को समाचार पत्र अपने यहां नियमित स्थान देने लग जाएं.

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