सुबह उठते ही आज ठण्ड कुछ ज्यादा ही लग रही थी .सर्दी ने अपना प्रकोप दिखाना शुरू कर दिया.जल्दी से स्वेटर ,शॉल डाल कर काम में जुट गई ,बेटी को स्कूल के लिए तेयार जो करना था . मन तो हो रहा था कि सुबह कि गुनगुनी धुप में बैठ कर चाय का आनंद लिया जाए .लेकिन इस आनंद में बेटी कि स्कूल बस छूट जाती .चाहे सर्दी हो या बारिश या गर्मी कुछ काम अनिवार्य होते हैं.. उन्हें मौसम के भरोसे नहीं टाला जा सकता हे.शायद में ग़लत भी हो सकती हूँ. हमने अब ऐसा समाज और परिवेश बना लिया है कि छोटे बच्चों को भी शानदार स्वेटर्स,जर्किन, ज़ुराबें पहनाकर बस में स्कूल रवाना कर देते हैं.अब वो नज़ारे नज़र नहीं आते जब ठण्ड के दिनों में हमारी टीचर हमें बला सी ठंडी कक्षाओं से निकालकर स्कूल के अहाते में गुनगुनी धूप में ले आती थी.किलकती दूप में पकृति कितनी अनोखी गर्माहट बिखेरती थी. यह गर्माहट रिश्तों में भी बड़े प्यार से घुस आती थी और सर्वत्र एक आत्मीय संसार की सृष्टि करती थी.
आज जब बेटी को स्कूल बस में रवाना कर जब मैं घर आई तो किचन में नाश्ते की तैयारी में लग गयी . मन चाह रहा था कि आज धूप का आनंद ले लिया जाए लेकिन अभी तक महरी का पता नहीं था.साढ़े आठ बजे तक वह आई मेरे कुछ कहने से पहले ही वह भी आज ठण्ड को कोसने लगी .मेरे द्वारा गरम चाय देने पर वह काम करते करते ही बताने लगी बीबीजी इतनी ठण्ड में भी घर का सारा काम निपटा कर ,पूरे घर का खाना बनाओ और फिर पैदल पैदल आपके यहाँ काम पर आओ तो देर तो हो ही जाती है न. उसकी बात में बड़ी मासूमियत और ईमानदारी झलक रही थी.हमारे घरों में तो हीटर,गीज़र या गैस जैसे साधन तो हैं नहीं . ठिठुरते हुए ही सारा काम निपटाना पड़ता है हम तो सिर्फ धूप के भरोसे ही अपनी ठण्ड भगाते हैं और काम पर लग जाते हैं.पर बीबीजी इस निगोड़ी धूप से तो चुल्हा नहीं जलता न ?मेरे मन मे उसके देरी से आने के पूर्व उठ रहा ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया. सोचा कितनी विवश है यह और उसका परिवार. और हम साधन सम्पन्नलोग भी कितने विवश हैं साधनों के इस्तेमाल के लिये. उसकी विवशता और मेरी विवशता में कितना फ़र्क़ है न ? वे हर लम्हा अपनी थकन मिटाने या साधन जुटाने के लिये प्रकृति के आसरे हैं और हम सब ने अपनी ज़िन्दगी में साधनों ही साधनों का अम्बार लगा लिया है. मैं उसकी बात से सहमति जता कर अपने काम में लग गई.
आज जब बेटी को स्कूल बस में रवाना कर जब मैं घर आई तो किचन में नाश्ते की तैयारी में लग गयी . मन चाह रहा था कि आज धूप का आनंद ले लिया जाए लेकिन अभी तक महरी का पता नहीं था.साढ़े आठ बजे तक वह आई मेरे कुछ कहने से पहले ही वह भी आज ठण्ड को कोसने लगी .मेरे द्वारा गरम चाय देने पर वह काम करते करते ही बताने लगी बीबीजी इतनी ठण्ड में भी घर का सारा काम निपटा कर ,पूरे घर का खाना बनाओ और फिर पैदल पैदल आपके यहाँ काम पर आओ तो देर तो हो ही जाती है न. उसकी बात में बड़ी मासूमियत और ईमानदारी झलक रही थी.हमारे घरों में तो हीटर,गीज़र या गैस जैसे साधन तो हैं नहीं . ठिठुरते हुए ही सारा काम निपटाना पड़ता है हम तो सिर्फ धूप के भरोसे ही अपनी ठण्ड भगाते हैं और काम पर लग जाते हैं.पर बीबीजी इस निगोड़ी धूप से तो चुल्हा नहीं जलता न ?मेरे मन मे उसके देरी से आने के पूर्व उठ रहा ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया. सोचा कितनी विवश है यह और उसका परिवार. और हम साधन सम्पन्नलोग भी कितने विवश हैं साधनों के इस्तेमाल के लिये. उसकी विवशता और मेरी विवशता में कितना फ़र्क़ है न ? वे हर लम्हा अपनी थकन मिटाने या साधन जुटाने के लिये प्रकृति के आसरे हैं और हम सब ने अपनी ज़िन्दगी में साधनों ही साधनों का अम्बार लगा लिया है. मैं उसकी बात से सहमति जता कर अपने काम में लग गई.
विवशता विवशता का अंतर..अच्छा आलेख.
ReplyDeleteok
ReplyDeleteआपने एक नये एंगल से बात की है.
ReplyDeleteहम समर्थ लोग वाकई उनको इगनोर करते हैं जिसकी अपनी विवशताओं अंदाज हम लगा ही नहीं सकते...जारी रहे ये विचार यात्रा.
आपकी लेखनी और लेखन शैली नि:संदेह प्रभावित करने वाली लगी मुझे , नियमित लिखें । आभार
ReplyDeleteअजय कुमार झा