Monday, January 25, 2010

बच्चे का क़ामयाब होना ज़रूरी है या अच्छा इंसान होना ?


एक टीवी शो की प्रतिभागी १२ साल की लड़की ने आत्महत्या कर ली...ये ख़बर सुनी तो मन विचलित हो गया. मन ने प्रतिप्रश्न किया कि हम हमेशा अपने बच्चों में क़ामयाबी ही क्यों तलाशते हैं, इंसानियत क्यों नहीं,सलाहियतें क्यों नहीं,नेकियाँ क्यों नहीं,क्रिएटिविटि क्यों नहीं ?
यह भी विचार विचलित करता रहा कि क्यों हम अपने बच्चे को सर्वगुण सम्पन्न देखना चाहते हैं.उससे अधिक अपेक्षाएं कर के क्या हम उसे उसकी उम्र से बड़ा नहीं बना रहे हैं.उसका बचपन नहीं रौंद रहे हैं.ये तो समझना ही पड़ेगा कि कच्चा मिट्टी का घड़ा अपने पानी नहीं टिका सकेगा.

हम बच्चों से बड़ों जैसी उम्मीदें क्यों करते हैं.उसने कोई ग़लती की नहीं और हम चिल्लाना शुरू कर देते हैं..इतने बड़े हो गए अभी तक अक़्ल नहीं आई तुम्हें.पता नहीं तुम कब समझोगे...कब बड़े और ज़िम्मेदार बनोगे... बच्चो से हम बड़ो जेसी उम्मीदें क्यों करते है ? हम क्यों चाहते है...जबकि हक़ीक़त यह है कि हम भी उसकी उम्र में लगभग वैसी ही हरक़तें या ग़लतियाँ करते थे जैसी वह कर रहा है या कर रही है.
इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि हम अपना प्रारब्ध लेकर आए हैं और वह अपना. अपने प्रारब्ध में उसका प्रारब्ध तलाशना बेमानी है. यह भी सोचियेगा कि आप जो भी हैं आज क्या उसके निशान कल थे...बीते कल आप भी कच्चे ही थे.आते आते ही आपमें एक तरह की गंभीरता आई और ज़िन्दगी को क़ामयाब बनाने का नज़रिया और दृष्टिकोण मिला.

ध्यान रहे बच्चे की प्रतिभा को सहज रूप से आगे बढ़ने का मौक़ा और वातावरण दीजिये. सिर्फ़ चिल्लाने और क्रोध करने से कुछ नहीं होगा. किसी किसी बच्चे को ज़िम्मेदार बनने में थोड़ा समय लगता है.इस प्रतिस्पर्धी समय में उसे थोड़ा सम्हलने का मौक़ा दीजिये. रियलिटी शोज़ या मीडिया हाइप के दौर में दूसरे क़ामयाब बच्चों को देखकर नाहक अपने बच्चे पर प्रेशर मत डालिये कि तुम्हें भी ऐसा ही बनना है. बच्चे की नैसर्गिक प्रतिभा को देख भाल कर उसे तराशने का ज़िम्मा आपका है. आप घर में ही उसके प्रतिस्पर्धी मन बन जाइये. बच्चे में प्रतिभा ठूँसने की कोशिश मत कीजिये. न पढ़ाई के मामले में , न ही किसी दीगर क्रिएटिव एक्टीविटी में. देखा-देखी के काम ठीक नहीं होते. जो दूसरा बच्चा आज आपको सफल दिखाई दे रहा है, हो सकता है उसमें असाधारण प्रतिभा हो या उसके माता-पिता ने उसकी प्रतिभा निखारने में अतिरिक्त प्रयास किये हों वैसा वातावरण क्रिएट किया हो.

बच्चों की मस्ती,खेल और बेफ़िक्री में अपना बचपन तलाशने की कोशिश कीजिये,आपको भी अपने बच्चे के साथ बच्चा बन जाना आना चाहिये. उसका दोस्त बनना आना चाहिये,उससे बेहतर संवाद स्थापित करना आना चाहिये. सिर्फ़ स्टेटस या अपने मानसिक संतोष के लिये अपने बच्चे को किसी कोचिंग,डांस क्लास या कम्प्यूटर क्लास में भेजना उसका समय और अपना पैसा नष्ट करना ही है. इस ज़बरदस्ती से बड़ा नुकसान यह भी है कि आप अपनी ज़िद के कारण अपने बच्चे को अपने से दूर ही कर रहे हैं.

धीरज रखिये हर चीज़ का समय होता है. जैसे कि फूल के खिलने का या डाली पर फल के पकने का ...बेमौसम पकाए गए या खाए गए फल कभी भी मिठास नहीं देते.आपका संयम,स्नेह, मार्गदर्शन,मित्रता और ज़रूरत पड़ने पर लागू किया गया अनुशासन आपके बच्चे का सुनहरा भविष्य रच सकता है....

Thursday, January 14, 2010

सर्द मौसम...उसकी विवशता ;मेरी विवशता


सुबह उठते ही आज ठण्ड कुछ ज्यादा ही लग रही थी .सर्दी ने अपना प्रकोप दिखाना शुरू कर दिया.जल्दी से स्वेटर ,शॉल डाल कर काम में जुट गई ,बेटी को स्कूल के लिए तेयार जो करना था . मन तो हो रहा था कि सुबह कि गुनगुनी धुप में बैठ कर चाय का आनंद लिया जाए .लेकिन इस आनंद में बेटी कि स्कूल बस छूट जाती .चाहे सर्दी हो या बारिश या गर्मी कुछ काम अनिवार्य होते हैं.. उन्हें मौसम के भरोसे नहीं टाला जा सकता हे.शायद में ग़लत भी हो सकती हूँ. हमने अब ऐसा समाज और परिवेश बना लिया है कि छोटे बच्चों को भी शानदार स्वेटर्स,जर्किन, ज़ुराबें पहनाकर बस में स्कूल रवाना कर देते हैं.अब वो नज़ारे नज़र नहीं आते जब ठण्ड के दिनों में हमारी टीचर हमें बला सी ठंडी कक्षाओं से निकालकर स्कूल के अहाते में गुनगुनी धूप में ले आती थी.किलकती दूप में पकृति कितनी अनोखी गर्माहट बिखेरती थी. यह गर्माहट रिश्तों में भी बड़े प्यार से घुस आती थी और सर्वत्र एक आत्मीय संसार की सृष्टि करती थी.

आज जब बेटी को स्कूल बस में रवाना कर जब मैं घर आई तो किचन में नाश्ते की तैयारी में लग गयी . मन चाह रहा था कि आज धूप का आनंद ले लिया जाए लेकिन अभी तक महरी का पता नहीं था.साढ़े आठ बजे तक वह आई मेरे कुछ कहने से पहले ही वह भी आज ठण्ड को कोसने लगी .मेरे द्वारा गरम चाय देने पर वह काम करते करते ही बताने लगी बीबीजी इतनी ठण्ड में भी घर का सारा काम निपटा कर ,पूरे घर का खाना बनाओ और फिर पैदल पैदल आपके यहाँ काम पर आओ तो देर तो हो ही जाती है न. उसकी बात में बड़ी मासूमियत और ईमानदारी झलक रही थी.हमारे घरों में तो हीटर,गीज़र या गैस जैसे साधन तो हैं नहीं . ठिठुरते हुए ही सारा काम निपटाना पड़ता है हम तो सिर्फ धूप के भरोसे ही अपनी ठण्ड भगाते हैं और काम पर लग जाते हैं.पर बीबीजी इस निगोड़ी धूप से तो चुल्हा नहीं जलता न ?मेरे मन मे उसके देरी से आने के पूर्व उठ रहा ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया. सोचा कितनी विवश है यह और उसका परिवार. और हम साधन सम्पन्नलोग भी कितने विवश हैं साधनों के इस्तेमाल के लिये. उसकी विवशता और मेरी विवशता में कितना फ़र्क़ है न ? वे हर लम्हा अपनी थकन मिटाने या साधन जुटाने के लिये प्रकृति के आसरे हैं और हम सब ने अपनी ज़िन्दगी में साधनों ही साधनों का अम्बार लगा लिया है. मैं उसकी बात से सहमति जता कर अपने काम में लग गई.

Tuesday, January 5, 2010

झील का स्वच्छ जल-एक बोध कथा



एक बार गौतम बुद्ध अपने कुछ शिष्यों के साथ एक गॉंव से दूसरे गॉंव जा रहे थे। बीच सफ़र में उनके मार्ग में एक झील पड़ी। बुद्ध ने अपने एक अनुयायी को कहा कि उन्हें बड़ी प्यास लगी है और वो झील से पानी ले आए।

शिष्य चल कर झील तक पहुँचा। तभी उसने देखा कि एक बैलगाड़ी झील पार कर रही थी जिसके कारण झील का पानी बहुत मैला एवं कीचड़युक्त दिखाई पड़ रहा था। शिष्य ने विचार किया कि ऐसा पानी लेकर वो बुद्ध के पीने के लिए कैसे लेकर जा सकता था ? वो पलट कर बुद्ध के पास आ गया और उनसे कहा, "भगवन, झील का पानी कीचड़ वाला है और आपके सेवन योग्य नहीं है।' विश्राम करते-करते कुछ समय और बीता तथा एक बार पुनः बुद्ध ने उसी शिष्य को पानी के लिए भेजा। शिष्य आज्ञा का पालन करते हुए झील तक गया और उसे सुखद आश्चर्य हुआ, यह देखकर कि झील का पानी एकदम साफ़-स्वच्छ था। कीचड़ झील की सतह में बैठ चुका था तथा पानी पीने योग्य था। उसने अपने पात्र में जल भरा और बुद्ध के पास पहुँच गया।

बुद्ध ने पहले पात्र के जल की ओर देखा, उसके पश्चात् दृष्टि उठाकर शिष्य की ओर देखने लगे। उन्होंने कहा, "तुमने देखा कि क्या हुआ? तुमने उस पानी को वैसे ही छोड़ दिया, तो कीचड़ धीरे-धीरे बैठ गया और तुम्हें साफ़ पानी प्राप्त हुआ। हमारा मस्तिष्क भी ऐसा ही कुछ है। जब भी वो अशांत हो या उसमें अधिक उथल-पुथल हो तो उसे वैसा ही छोड़ दो। उसे थोड़ा व़क़्त दो। तुम देखोगे कि कुछ समय बाद वो स्वतः ही स्थिर हो जाएगा। मन को शांत करने के लिए अपनी ओर से अतिरिक्त प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं।' यह ग़ौरतलब है कि "मन की शांति' पानी कोई कठिन कार्य नहीं है। यह तो एक स्वाभाविक, सहज रूप से होने वाली प्रक्रिया है।

बुद्ध ने आगे कहा, "यह भी सदैव याद रखो कि तुम बहुत ही सुरम्य और शांत वातावरण में रहते हुए भी यह महसूस कर सकते हो कि तुम्हारा अन्तर्मन बहुत अशांत है। ऐसी स्थिति में वातावरण की सुन्दरता तुम्हारे किसी काम की नहीं। वहॉं तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। तुम्हें मन से शांत रहना है तो शांति को अपने अन्दर की गहराई में उतारना होगा। उसे तुम्हें तुम्हारे अस्तित्व से मन तक और मन से बाहरी परिवेश में लाना होगा। जब शांति अपने अन्दर होती है तो वह बाहर भी प्रस्फुटित होने लगती है। वह तुम्हारे चारों ओर फैल जाती है और संपूर्ण वातावरण को शांतिमय बना देती है। उसका असर दूर-दूर तक देखा जा सकता है। अतः मन जैसा है उसे वैसा ही रहने दो, धीरे-धीरे वो स्थिर हो जाएगा और तुम्हें एक सुखद अनुभूति से भर देगा।'