स्क्रीन प्ले क्या बला है इस बिषय पर इम्तेहानों में एक नोट
लिखना था.
प्रश्न भले
ही
५ मार्क्स का
था लेकिन मुझे स्क्रीन
प्ले को तफ़सील से जानने की उत्सुकता
थी .हाथ में आई नसरीन
मुन्नी
कबीर
की
किताब
'सिनेमा
के
बारे
में
' बता दूँ कि किताब की शक्ल में ये बतकही जावेद अख़्तर और नसरीन
आपा की लम्बी गुफ़्तगू है..जावेद
साहब
की
तरकश
और उनकी मरहूम वालिदा
सफ़िया अख़्तर
और वालिद मशहूर शायर जाँ निसार अख़्तर की ख़तोकिताबत की किताब उर्दू
अदब
का
अहम हिस्सा
है
.इन
किताबों
को
पढ़
कर
यही
महसूस
हुआ
कि
ग़र किताबों
की दीवानगी हुई
है
तो
न
सिर्फ
आपको
बोले गये हर
लफ़्ज़ और उन्हें सुननेवालों को सुकून बख़्शती है बल्कि यदि आपकी तासीर लिखने-पढ़ने की है
तो ये किताबे आपके हुनर में इज़ाफ़ा करने की
ताक़त रखतीं हैं.
जावेद
साहब
को पढ़ना या सुनना अदब की दुनिया के उस रिवायत और दौर से
रूबरू होना है जिसने उर्दू की बहुत ईमानदार ख़िदमत की है. बताती चलूँ अज़ीम शायर
मजाज़ (याद कीजिये तलत महमूद का गाया गीत...एक ग़मे दिल क्या करू...ऐ वहशते दिल क्या
करूँ) का शताब्दी वर्ष है और वे जावेद अख़्तर के मामू थे.
चलिये अब किताब ‘सिनेमा के बारे में’ पर आ जाते हैं जावेद
साहब ख़ुद कहते हैं कि ...हम
पढ़ते
है
या
फिल्मे
देखते
है
तो
वे
हमारे
तस्सवुर
की रग़ों में
ख़ून कि
तरह
दौड़ेगी
.जावेद
साहब
जब तेरह
बरस
के
रहे होंगे तभी उन्होंने
'गोगोल
', 'चेखव'
,'गोर्गी'
को
पढ़
लिया
था
. वह
उम्र
जिसमें
बच्चे
अपना
अल्हड़पन,लड़कपन
भी
पूरा
नहीं
जी
पाते
जादू
(जावेद साहब का मुँहबोला नाम ) ने अपनी जुबान
ही
नहीं
.ग़ैरमुल्की
ज़ुबानों
के क्लासिक्स चाट लिये थे .जावेद साहब
के लिये किताबे पढ़ना किसी जुनून से कम नहीं था; भले ही उन्हें
वे
किताबें
बहुत
बाद
में
समझ
आईं
.उनका
कहना
है कि
पढ़ते
रहो
किताबें
ख़ुद
तुम्हें
समझने
लगेंगी
.ऐसा
ही
एक
और नुस्ख़ा
है
......विदेशी
किताबों
के
किरदारों
को
देसी
नाम
देकर
उस
विदेशी किताब
को
ही
अपने
आसपास
के
माहौल
का
बाना
पहना
दो
,ताकि
उसमें
से
अपनेपन
की ख़ुशबू
आने
लगे .सच जाने; ये
तरीक़ा
कारगर
है
और मैंने
ख़ुद
इसे
आज़माया
है
.
जावेद साहब उर्दू में ही लिखते है उनका ख़्याल है की जब ज़ुबान बोलचाल से बाहर हो जाती है तो उससे जुडी तहज़ीब भी चली जाती है जो उस ज़ुबान में बसा करती थी. नसरीन मुन्नी कबीर के इस लम्बे इंटरव्यू में फ़िल्मी पेशे और तजुर्बे का असर भी दिखाई देता है .जावेद साहब का सिनेमा की बारीकियों को पेश करने का अंदाज़ भी क़ाबिले तारीफ़ है. उन्होंने सिनेमाई भाषा,तकनीक और विधा की तमाम जटिलताओं को बड़ी ही आसानी से बयाँ किया है जिससे वह अवाम की समझ में आ सके.सिनेमाई रसोई में जो मसाले इस्तेमाल होते हैं उसका सही अंदाज़ लगाकर लज़ीज़ पकवान बनाने का हुनर हर किसी के बूते का नहीं .तभी तो आज जावेद अख़्तर अपने फ़न के अकेले बेताज बादशाह है . अपनी बादशाहत क़ायम रखने के लिए जिस तजुर्बे , इल्म और फ़न की ज़रूरत होती है ख़ुदा ने वह सब कुछ जावेद साहब पर दिल खोल कर लुटाया है .लेकिन यहाँ यह भी कुबूल करना पड़ेगा कि खुदा की नेमत को जावेद साहब ने बड़ी मेहनत से निखारा है चुनाचें इन ज़ज्बातों में शब्दों की 'दीवार' में चुनवाना पड़ा ,अपनी मंशा को ज़ब्त करना पड़ा होगा लेकिन तहज़ीब के इस ख़िदमतगार ने अपनी 'यादों की बारात' को अलग 'अंदाज़' में पेश किया जिससे सिनेमाई मुफलिसी की ‘ज़ंजीर' टूट गई ,सड़ी गली परम्परा की 'दीवार' 'शोले' बनकर 'शान' से 'क्रांति' की 'मशाल' जलाए 'ज़माने' को 'सागर' पार ले जाने को रौशनी दिखने को 'बेताब' दिखी ,शौहरत का ये 'सिलसिला' उन्हें 'विरासत' में मिला था .उन्हें अपना 'वजूद' 'अर्थ' से लबरेज़ लगा .'संघर्ष' और 'प्रेम' तो उनके 'जींस' में था .नसरीन मुन्नी कबीर के आख़िरी सवाल के जवाब में जावेद अख़्तर फ़रमाते हैं - मैं जो करने आया था वही करना पसंद करूँगा ,एक फिल्म 'डायरेक्ट' करूंगा.जहां से आग़ाज़ किया था उसके अंजाम तक पहुँच कर फिर से वहीँ से आग़ाज़ करना पसंद करूँगा .
जावेद
साहब
जैसे
शख़्स सदियों
में
आते
है
और अपने
फ़न,हुनर
को,बड़ी शिद्दत से
अवाम
की
रूह
तक
पहुंचाते
है
.अवाम
के
दिमाग़ में
अपनी
शर्तों
पर
अपने
अंदाज़
में
घुसपैठ
कर उनके दिल पर क़ाबिज़ हो जाते हैं. ....उन्हें अपना
मुरीद
बनने
को
मजबूर
कर
देते
है.वे
एक ट्रेंड
सेटर
बन
जाते
है.
सारा
ज़माना
उन्हें
ही
फ़ॉलो
करता
है
.पुरानी
शराब
की
तरह
उनकी नज़्में,उनके
लिखे
नग़्मे ,स्क्रीन प्ले आज
भी
अपनी
महक
से
सिनेमाई
चमन
को
गुलज़ार
किये
हुए हैं .जावेद अख़्तर को पढ़ना या सुनना शब्दों के उस बेजोड़ हुनर से रूबरू होना है जो
वक़्त की नज़ाक़त को पढ़ना जानता है,वह अवाम की तहज़ीब,ज़ुबान,पहनावे और खानपान से बाख़बर
होकर ऐसी पटकथा रचता है जो कालजयी हो जाती है और संवादों की ताक़त से शोले को एक कल्ट मूवी बना देती है.
सुनहरी पर्दे के इस जादूगर का फ़न बरसों-बरस फ़िल्म मुरीदो के
दिलो-दिमाग़ पर राज करता रहे...आमीन.
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आपका प्रतिसाद;लिखते रहने का जज़्बा देगा.