बदलती दुनिया हाईटेक होती जा रही है. इसका असर रिश्तों पर भी नज़र आ रहा है. अपनेपन,आत्मीयता,ख़ुलूस और सौजन्य के सिलसिले ख़ारिज से होते जा रहे हैं.पडौस नाम की संस्था किताबी सी हो गई है. इसमे वह बेतक़ल्लुफ़ी गुम हो जा रही है. रिश्तों को जीवंत रखने वाला नमक यानी अपनापन अब बीते कल की बात लग रहा है. बिना पूर्व सूचना के किसी के घर जाना अब आउट ऑफ़ मैनर्स माना जा रहा है.दौड़ कर किसी के घर जाकर यह कहने वाला स्वर “भौजाईजी ज़रा एक कटोरी शकर दे देना तो”अब सुनाई नहीं दे रहा. ये अनौपचारिक लेनदेन न सिर्फ़ रिश्तों की मिठास का आधार होता था बल्कि एक कटोरी के इस लेनदेन में दीन-दुनिया के न जाने कितने दु:ख –दर्द साझा हो जाया करते थे.
शरारत' सीरियल का एक पात्र "शांतिजी' (शोभा सरनेम याद नहीं) वह हमेशा एक बर्तन लेकर ही नायिका के घर में प्रवेश करती है और शक्कर मॉंगती है। आने के बाद वे घर की घटनाओं में शामिल हो जाती है, ऐसा नहीं है कि आजकल "यह' नमक या शक्कर या जामन नहीं मिलताहै, बहुमंजिला इमारतों बंगलों को छोड़कर यह तो किसी चाल (ग्वाड़ी) छोटी सी कॉलोनी जहॉं एक दूसरे से सटे हुए मकान बने हुए हैं आज भी आसानी से मिलता है। कई जगह तो पीछे की तरफ़ एक खिड़की भी बनाई जाती है ताकि ज़रूरत पढ़ने पर सामान आसानी से ले या दे सकें। यह बात अलग है कि आजकल "मणिबैन डॉट कॉम' जैसे सीरियल्स की ज़रूरत पड़ रही है वरना सच्चाई तो "लापतागंज' ही है।
संकोच, ईगो यह सब हमारी भौतिक सुख-सुविधाओं की वजह से बढ़ता जा रहा है। गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर होते हुए भी अचानक आन पढ़ने वाली ज़रूरत/कमी/ग़लती छोटे लोगों की बराबरी में लाकर खड़ा कर देती है। इसी खाई को पाटने में अच्छे लोग लगे रहते हैं और बढ़ाने में ऐसे लोग जो कि किसी ग़रीब की मदद करने में भी फ़ोटो खिंचवाते नज़र आते हैं।
मिल-बॉंट कर जीने वाले लवण की पूर्ति, हमारी कमज़ोरियों, मर्यादा को ढकने वाले लवण की पूर्ति आज पैसे के द्वारा की जा रही है, परंतु हमदर्दी, दूसरों के दुःख में खुद भी सुध-बुध खोकर उसके दुःख को मिटाना, किसी की ख़ुशी में स्वयं भी दिवाली मनाना, यह सब पैसे से मिलता तो आज दुनिया स्वर्ग होगी।
पिता का न होना,जैसे घर में घर का न होगा !
12 years ago
ज़िन्दगी के नमक का गुम हो जाना दु:खद है.
ReplyDeleteयह नहीं मिला तो मनुष्यता में से आत्मीयता के तक़ाज़े गुम हो जाएंगे.
बहुत सुंदर आलेख जी आपके शब्दों का चयन और लेखन शैली बता रही है कि आगे प्रभावी लेखन पढने को मिलेगा ..शुभकामनाएं
ReplyDeleteअजय कुमार झा
'संकोच, ईगो यह सब हमारी भौतिक सुख-सुविधाओं की वजह से बढ़ता जा रहा है।'
ReplyDeleteबिना पूर्व सूचना के किसी के घर जाना अब आउट ऑफ़ मैनर्स माना जा रहा है'
sabhi kuchh to sahi likha hai aap ne...
बहुत सुंदर आलेख ....
ReplyDeletesatat lekhan jari rakhe.
ReplyDeleteसंकोच, ईगो यह सब हमारी भौतिक सुख-सुविधाओं की वजह से बढ़ता जा रहा है। गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर होते हुए भी अचानक आन पढ़ने वाली ज़रूरत/कमी/ग़लती छोटे लोगों की बराबरी में लाकर खड़ा कर देती है। इसी खाई को पाटने में अच्छे लोग लगे रहते हैं और बढ़ाने में ऐसे लोग जो कि किसी ग़रीब की मदद करने में भी फ़ोटो खिंचवाते नज़र आते हैं।
ReplyDeleteआपकी ये बात मुझे काफी हद तक सही लगी, और ऐसा महसूस हो रहा है की संवादहीनता के ये स्तिथि बड़ती जा रही है, मेरी राय में इस स्तिथि का मुख्य कारण है वो है कंप्यूटर, इसके माध्यम से हम ने दुनिया के दुरी तो ख़तम कर दी है परन्तु रिश्तो की दुरिया जरुर बढ गयी है, ब्लॉग इस बात का ताजा उद्धरण है, जिसमे हम दुनिया को अपनी बात तो कहना चाहते है परन्तु कही न कही अपनी पहचान को स्थापित करने का भी लक्ष्य रहता है