Thursday, September 6, 2012

बच्चे को अपनी असफलता की कहानी भी सुनाने दीजिये !


अभी कुछ दिनों पहले बेटी के स्कूल द्वारा आयोजित पेरेंट्स-टीचर्स मीट में जाने का योग बना. . वहाँ कुछ माता-पिता से ये जानना बहुत चौंकाने वाला था कि बच्चों को क़ामयाब बनाना वाक़ई एक बड़ा काम है.स्कूल में सत्यमेव जयते वाले ? 'डॉ.भरत शुक्ला पेरेंटिंग पर एक लेक्चर सुना और अभी कल ही अनंत पै की किताब 'बच्चों की सफलता मैं सहायक कैसे बनें ' पढने का मौक़ा हाथ लगा.बहुत सारी बात एक ही वक़्त ज़हन में आतीं हैं तो लगता है कि इसे और लोगों से साझा करना चाहिये.बस इसीलिये आज अपने ब्लॉग पर लिखने बैठ गई हूँ.

एक बात ये समझ में आई कि हर व्यक्ति कि परिवेश,पहचान ,स्वभाव ,सोच, प्रतिक्रिया के तरीक़े अलग अलग होते हैं. तो यह कैसे संभव है कि हर बच्चे को ग्रूम करने का कोई एक फिक्स फार्मूला हो. सुशिक्षित माता-पिता की संतान भी वैसी ही हो ये ज़रूरी तो है न. मज़ाक नहीं कर रही पर यह सर्वज्ञात है कि आजकल के चोर डाकू भी 'वेल एजुकेटेड 'होते हैं.कहना यह चाहती हूँ कि हम अभिभावकों की बच्चों की क़ामयाबी को लेकर चिंता कुछ ज़्यादा ही है.होना तो ये चाहिये कि हम बच्चों को अच्छा इंसान कैसे बनाएँ ;ये हमारी प्राथमिकता होनी चाहिये ताकि बच्चे अपनी असफलता को भी सकारात्मकता से लेकर पुन:सफल होने की कोशिश करें ..एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी कि,बच्चों को भी सम्मान दिया जाना चाहिए ,उन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए ;यदि आप अपने बच्चे की बात ध्यान से सुनते हैं तो समझ लीजिये कि आपने उसे स्वीकार लिया है.इस स्वीकार का मतलब है बच्चे को सेंस ऑफ़ डिगनिटि यानी स्वाभिमान से भरापूरा बनाना है. ध्यान रखिये कि जब बच्चा असफल होता है तब उसे सबसे ज़्यादा समर्थन अपने माता-पिता से चाहिये होता है. वह हमेशा इस बात को याद रखता है कि जब वह विफल हुआ तो उसके अपनों से कैसे रि-एक्ट किया था. और कालांतर में यहीं से उसके स्वभाव की नींव डलती है. बच्चा उसी पल को हमेशा याद रखता है और इसी तरह उसका व्यक्तित्व या स्वभाव बनता है. बच्चों की बात को स्वीकारना यानी एक तरह से पौधे को सींचना.ये भी ग़ौर करने वाली बात है कि अपने बच्चे के लिये आप एक तरह का सुरक्षा कवच ज़रूर बने लेकिनौसे एक्स्क्ट्रा सिक्युरिटी न दें.उसे विपरीत से जुझने का साहस और हौसला दें.

.बच्चे को लक्ष्य निर्धारित करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो की लक्ष्य उस पर थोपा जाए .उन्हें सोचने दिया जाए ,सपने देखने दिए जाएँ.उसका पहला क़दम फ़ैंटेसी होगा लेकिन बाद में वह सही योजना बना कर उस पर अमल करना सीख जाएगा. हमारी कोशिश होना चाहिये कि यदि हम पालक के रूप में बच्चे से कुछ एक्सट्राओर्डिनरी अपेक्षा कर रहे हैं तो हमें ख़ुद ऐसा करके एक आदर्श स्थापित करना होगा. स्मरण रहे कि कभी भी किसी और के बच्चे से अपने बच्चे की तुलना करना यानी अपने बच्चे का मनोबल गिराना है. आपको एक लाइट -हॉउस बनकर रहना चाहिये; एकदम अविचलित,धैर्य से भरापूरा लाइट हाउस..एकदम स्थित खड़ा हुआ..अडिग खड़ा लाइट हाउस किसी भी तूफान में जहाज़ का पथ प्रदर्शक बनता है न...बस वैसा ही....प्रकाश हमें बच्चे के मानस तक पहुँचाते रहना चाहिये.. बच्चे में आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति का विकास कीजिये ताकि वें प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हो.असल में इच्छाशक्ति और कुछ नहीं ;अपने मन को भीतर से व्यवस्थित करने की कला है,इससे बच्चे की स्मरण शक्ति का विकास होगा है;एकाग्रता आती है .

हमें बच्चों को संवाद में भी ऐसी स्पेस देनी चाहिये कि वे अपनी ग़लती को खुलकर आपसे डिसकस कर सकें.यदि ऐसा नहीं होता तो समझिये आप अपने बच्चे को एक ऐसे अंधकार में धकेल रहे हैं जहाँ एकांत,अवसाद या अपने पेरेंट्स से बात को छुपाने की ज़मीन बनने लगती है. बच्चों को स्वतंत्रता दें लेकिन जिम्मेदारी के साथ .बिना किसी जिम्मेदारी के दी गयी स्वतंत्रता बच्चों को बिगाड़ सकती है .वैसे हम अपनी बच्चों की फुलवारी के माली है और अच्छी तरह से उनकी ज़रूरतों से वाक़िफ़ होते हैं.. आइये हम सब मिलकर ऐसी फुलवारी बनाएँ जिसमें सार्थक संवाद की हवा,आगे बढ़ने के हौंसले का खाद-पानी,हौसलाअफज़ाई की धूप मौजूद हो...