Thursday, March 29, 2012

निर्णय में जल्दी न करें ! शायद हक़ीक़त कुछ और हो.


एक डॉक्टर बहुत जल्दबाज़ी में अस्पताल पहुँचे क्यूँकि उन्हें आपातकालीन स्थिति में फ़ोन आया था और उन्हें तुरन्त एक ऑपरेशन करना था। बिना एक पल भी गॅंवाए उन्होंने फ़ोन का उत्तर दिया और अस्पताल रवाना हो गए थे। ऑपरेशन थिएटर के बाहर गलियारे में उन्होंने एक सज्जन को बेसब्री से चक्कर लगाते उनके इंतज़ार में पाया।

डॉक्टर को देखते ही वो सज्जन बिफ़र पड़े, "इतनी देर कैसे कर दी? क्या आपको मालूम नहीं कि मेरे पुत्र का जीवन ख़तरे में है? क्या आपमें ज़िम्मेदारी का कोई भी अहसास नहीं?' डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "मैं क्षमा चाहता हूँ किन्तु मैं अस्पताल से दूर था और जैसे ही मुझे फ़ोन आया, मैं तुरन्त यहॉं के लिए चल पड़ा। आप कुछ शांत हो जाएँ ताकि मैं अपना काम कर सकूँ।' सज्जन फिर उबल पड़े, "शांत हो जाऊँ? यदि ऐसी हालत में आपका बेटा पड़ा होता तो क्या आप अपने आप पर काबू रख पाते? यदि आपका अपना बेटा अभी ख़त्म हो जाए तो आप क्या कहेंगे?'

डॉक्टर पुनः मुस्कुराए और बोले, "मैं वही कहूँगा जो पवित्र धर्मग्रन्थ में लिखा हुआ है। हम धूल से आए थे और धूल में ही मिल जाएँगे, ईश्वर की इच्छा प्रबल है। डॉक्टर किसी की भी ज़िंदगी बढ़ा नहीं सकता है। आप जाएँ, अपने बेटे के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करें और मुझे ईश्वर के आशीर्वाद से मेरा कार्य करने दें।' यह सुन कर दुखी सज्जन बड़बड़ाए, "दूसरों को उपदेश देना बहुत आसान है। जब खुद पर बीते तो पता चले।'

ऑपरेशन कुछ घंटों तक चलता रहा। अंततः डॉक्टर ऑपरेशन थिएटर से संतोष का भाव लिए बाहर आए और बोले, "ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है। आपके बेटे की जान बच गई है।' इतना कहकर बिना उन सज्जन की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए, डॉक्टर तेज़ गति से अपनी कार की ओर दौड़ पड़े। यह ज़रूर बोलते गए, "यदि आपकी और कोई जिज्ञासा हो तो ड्यूटी नर्स से पूछ लीजिएगा।'

डॉक्टर के वहॉं से निकलने के तुरन्त बाद उन सज्जन ने नर्स को पकड़ा, "यह डॉक्टर इतना घमंडी क्यों है? क्या यह कुछ समय रुक कर मुझे मेरे पुत्र के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं दे सकता था?'

नर्स की आँखों से झर-झर अश्रु टपक रहे थे। रूंधे गले से वो बोली, "डॉक्टर साहब के इकलौते सुपुत्र की एक सड़क दुर्घटना में कल मृत्यु हो गई। जब आपके बेटे के लिए हमने उन्हें फ़ोन किया तो वे अपने पुत्र के अंतिम संस्कार में थे। आपके बेटे को जीवन-दान के बाद अब वो पुनः अंतिम रस्में पूरी करने के लिए चले गए।'

यह सुनकर उन सज्जन को कैसा लगा, यह तो नहीं मालूम किन्तु इतना ज़रूर सीखा जा सकता है कि किसी को भी देख कर, बिना सोचे-समझे, उसके बारे में किसी नतीजे पर नहीं पहुँचना चाहिए। क्या पता उस पर क्या गुज़र रही हो और उसकी परिस्थितियॉं कैसी हों?

(मानवीय मूल्यों और प्रसन्नता को प्रसारित करने वाले परिपत्र स्वयं उत्थान से साभार)